खेल-
भारत में खेल केवल मनोरंजन का साधन नहीं हैं वे समाज के मानसिक और सांस्कृतिक विकास का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। हर बड़े खेल महाकुंभ, जैसे क्रिकेट विश्व कप, ओलंपिक या एशियाई खेल, देशभर में उत्साह की लहर दौड़ाने का काम करते हैं। टीवी चैनलों, ऑनलाइन पोर्टलों और समाचार पत्रों में इन खेलों की खबरें प्रमुख स्थान पाती हैं। क्रिकेट के हर शॉट, विकेट और रन की जानकारी लगभग हर मीडिया प्लेटफॉर्म पर बिना किसी विलंब के पहुंच जाती है। लेकिन इसी उत्साह और कवरेज के पीछे एक गहरी असमानता छिपी हुई है, जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता। मीडिया का ध्यान प्रमुख रूप से क्रिकेट और फुटबॉल जैसी कुछ लोकप्रिय खेलों पर केंद्रित रहता है, जबकि मुक्केबाज़ी, तैराकी, एथलेटिक्स या निशानेबाज़ी जैसी खेलों में भारतीय खिलाड़ियों की उपलब्धियाँ अक्सर नजरअंदाज कर दी जाती हैं। उदाहरण के लिए, जब ओलंपिक में भारत को किसी निशानेबाज़ ने पदक दिलाया, तो खबरें आमतौर पर दिनभर तक सीमित रहती हैं, और अगले दिन के अख़बार में यह मामूली कॉलम तक ही सिमट जाती हैं। वहीं क्रिकेट में एक छोटी सी जीत भी अगले हफ्ते तक हेडलाइन बनती रहती है, सोशल मीडिया ट्रेंड करती है और टीवी पर विस्तृत विश्लेषण के साथ प्रस्तुत की जाती है। इस असंतुलन का प्रभाव केवल खबरों तक सीमित नहीं है। खेलों की यह प्राथमिकता नई पीढ़ी के बच्चों और युवाओं के खेल चयन पर भी असर डालती है। क्रिकेट या फुटबॉल को अधिक ध्यान और समर्थन मिलने के कारण युवा इन खेलों की ओर आकर्षित होते हैं, जबकि अन्य खेलों में प्रतिभाशाली खिलाड़ी अपने सपनों को छोड़ने के लिए मजबूर हो जाते हैं। तैराकी या मुक्केबाज़ी जैसी खेलों में प्रतिभा का स्तर उच्च होने के बावजूद उन्हें मीडिया द्वारा वह दृश्यता नहीं मिलती, जो उन्हें आगे बढ़ाने में सहायक होती। परिणामस्वरूप, देश की खेल विविधता धीरे-धीरे सीमित होती जा रही है।मीडिया कवरेज का असंतुलन खेलों के विकास पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालता है। स्पॉन्सर और निवेशक हमेशा उन्हीं खेलों में पैसा लगाना पसंद करते हैं, जिन्हें जनता देखती और जानती है। क्रिकेट की विशाल लोकप्रियता के कारण उसे भारी वित्तीय सहयोग मिलता है, जबकि मुक्केबाज़ी, तैराकी या एथलेटिक्स को वित्तीय दृष्टि से वह सहयोग नहीं मिलता, जिसकी उन्हें आवश्यकता होती है। इसके अलावा, प्रशिक्षकों और सुविधाओं की कमी भी अन्य खेलों के लिए एक गंभीर चुनौती बन जाती है।यह असंतुलन सामाजिक दृष्टि से भी चिंता का विषय है। खेल केवल प्रतिस्पर्धा नहीं हैं; ये राष्ट्रीय गर्व और एकता के प्रतीक भी हैं। जब किसी भारतीय निशानेबाज़ या एथलीट ने अंतरराष्ट्रीय मंच पर देश का नाम रौशन किया, तो वह उसी हर्ष और गौरव का पात्र होता है, जो क्रिकेट खिलाड़ियों का होता है। लेकिन मीडिया द्वारा इन उपलब्धियों को सामान्य बनाने से न केवल खिलाड़ी की मेहनत और संघर्ष का मूल्य कम होता है, बल्कि समाज भी उन खेलों की महत्ता को महसूस नहीं कर पाता। इसके पीछे सांस्कृतिक और व्यावसायिक कारण भी हैं। क्रिकेट और फुटबॉल के प्रशंसक लाखों में हैं, विज्ञापनदाता इन खेलों में निवेश करते हैं क्योंकि उन्हें दर्शकों की संख्या अधिक मिलती है। यही कारण है कि अन्य खेलों की खबरों को कम प्राथमिकता दी जाती है। लेकिन क्या यह तर्क पूरी तरह से न्यायसंगत है? क्या किसी खिलाड़ी की मेहनत, चाहे वह किसी भी खेल में हो, उसकी खबर की उपेक्षा का कारण बन सकती है? निश्चित रूप से नहीं। मीडिया का कर्तव्य केवल समाचार देना नहीं है यह समाज की सोच और प्राथमिकताओं को भी आकार देता है। जब मीडिया विभिन्न खेलों के संतुलित कवरेज में विफल रहता है, तो वह असमान सोच को बढ़ावा देता है। युवा पीढ़ी केवल क्रिकेट और फुटबॉल की ओर आकर्षित होती है और अन्य खेलों में प्रतिभा का विकास रुक जाता है। इसलिए, मीडिया को अपनी जिम्मेदारी समझते हुए खेलों की विविधता को उजागर करने का प्रयास करना चाहिए। एक और महत्वपूर्ण पहलू यह है कि खेलों के सामाजिक और स्वास्थ्य लाभ केवल लोकप्रिय खेलों तक सीमित नहीं होते।

तैराकी, मुक्केबाज़ी और एथलेटिक्स जैसे खेल मानसिक और शारीरिक दोनों दृष्टियों से संतुलित विकास में सहायक हैं। ये खेल अनुशासन, धैर्य और सहनशीलता सिखाते हैं। यदि मीडिया इन खेलों की उपलब्धियों को नियमित रूप से प्रस्तुत करे, तो यह न केवल युवाओं में इन खेलों के प्रति रुचि बढ़ाएगा, बल्कि समाज में खेल संस्कृति को भी समृद्ध करेगा। वास्तविक उदाहरण इसके प्रमाण हैं। पिछले ओलंपिक और एशियाई खेलों में भारत के एथलीटों ने कई बार शानदार प्रदर्शन किया है, लेकिन उन्हें क्रिकेट खिलाड़ियों के बराबर सार्वजनिक प्रशंसा नहीं मिली। ऐसी घटनाओं से यह स्पष्ट होता है कि मीडिया कवरेज का असंतुलन केवल खेलों की लोकप्रियता में फर्क नहीं डालता, बल्कि प्रतिभा की पहचान और उसे निखारने की प्रक्रिया में भी बाधक बनता है। समाज और मीडिया को मिलकर यह सुनिश्चित करना होगा कि खेलों के विकास में असंतुलन समाप्त हो। क्रिकेट और फुटबॉल के प्रशंसक बनाए रखें, लेकिन मुक्केबाज़ी, तैराकी, निशानेबाज़ी और अन्य खेलों को भी समान मंच मिले। समाचार पत्रों में कॉलम का विस्तार, टीवी चैनलों पर विशेष कार्यक्रम और ऑनलाइन मीडिया पर नियमित कवरेज इस दिशा में छोटे लेकिन प्रभावी कदम हो सकते हैं। यदि हम चाहते हैं कि भारत खेलों की दृष्टि से विश्व में अग्रणी बने और युवा हर प्रकार की खेल प्रतिभा में विकसित हो, तो मीडिया का संतुलित कवरेज अनिवार्य है। केवल क्रिकेट की हेडलाइन और शॉट की चर्चा से खेलों का वास्तविक महत्व नहीं बढ़ता। असली सफलता तब होगी जब प्रत्येक खेल और उसके खिलाड़ियों की मेहनत और उपलब्धियाँ समाज के सामने समान रूप से उजागर हों।इस असंतुलन को दूर करना सिर्फ मीडिया की जिम्मेदारी नहीं, यह समाज की भी जिम्मेदारी है। दर्शक, पाठक और विज्ञापनदाता इस दिशा में योगदान कर सकते हैं। हर खेल की कहानी को साझा करना, हर खिलाड़ी की मेहनत को सम्मान देना और विविध खेलों की उपलब्धियों को प्रमुखता देना ही भारत के खेल भविष्य को मजबूत और समृद्ध बना सकता है। यदि ऐसा हुआ, तो केवल क्रिकेट नहीं बल्कि मुक्केबाज़ी की पंच, तैराकी की लहरें, एथलेटिक्स के दौड़ते कदम और निशानेबाज़ी की सटीकता भी हेडलाइन में आएगी। यही वह संतुलन है, जो खेलों की वास्तविक भावना, विविधता और राष्ट्रीय गौरव को दर्शाता है।