संपादकीय-
शंघाई सहयोग परिषद की 25वीं बैठक से इतर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की मुलाकात ने एशियाई भू-राजनीति में नई हलचल पैदा की है। यह केवल दो देशों के प्रधानमुख्यों की औपचारिक भेंट नहीं थी, बल्कि दो सभ्यताओं, दो शक्तियों और दो वैश्विक दृष्टियों के बीच संवाद का एक ऐसा क्षण था, जिसे आने वाले समय की दिशा बदलने वाले अध्याय के रूप में देखा जा सकता है। यह मुलाकात ऐसे समय हुई है जब वैश्विक परिदृश्य अनिश्चितताओं से भरा हुआ है, अमेरिका ने व्यापारिक टैरिफ के नए हथियार चलाए हैं, रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद अंतरराष्ट्रीय राजनीति के ध्रुवीकरण की प्रक्रिया तेज हुई है और पश्चिमी प्रभुत्व को चुनौती देने के लिए ग्लोबल साउथ की आवाज़ पहले से कहीं अधिक प्रखर हो उठी है। भारत और चीन का संबंध हमेशा से बहुआयामी रहा है। एक ओर यह रिश्ता सहकार और साझेदारी के अवसरों से भरा हुआ है, वहीं दूसरी ओर सीमा विवादों और अविश्वास की परछाइयाँ भी उस पर पड़ती रही हैं। पिछले एक दशक में विशेषकर डोकलाम और गलवान की घटनाओं ने दोनों देशों की जनता के बीच गहरी कड़वाहट पैदा की। सीमाओं पर तनातनी, सैन्य तैनाती और विश्वास की कमी ने संबंधों को लगभग शून्य पर ला खड़ा किया था। लेकिन अंतरराष्ट्रीय राजनीति में स्थायी दुश्मनी जैसी कोई चीज़ नहीं होती, केवल स्थायी हित होते हैं। यही कारण है कि शी जिनपिंग और नरेंद्र मोदी की यह मुलाकात केवल कूटनीतिक औपचारिकता नहीं, बल्कि एक गहरे संदेश की तरह उभरी है कि भारत और चीन को चाहे जितनी भी कठिनाइयाँ हों, उन्हें अंततः साथ-साथ चलना ही होगा।प्रधानमंत्री मोदी ने अपने वक्तव्य में स्पष्ट कहा कि करोड़ों लोगों का कल्याण भारत-चीन सहयोग से जुड़ा है। यह वाक्य केवल एक औपचारिक टिप्पणी नहीं है, बल्कि आर्थिक यथार्थ का सटीक प्रतिविंब है। एशिया की कुल जनसंख्या का लगभग आधा हिस्सा केवल इन दो देशों में बसता है, और ये दोनों अर्थव्यवस्थाएँ वैश्विक विकास के इंजन की तरह हैं। ऐसे में यदि दोनों देश सहयोग करें तो एशिया ही नहीं, पूरी दुनिया का संतुलन बदल सकता है। चीन की औद्योगिक शक्ति और भारत की सेवा-क्षेत्र में श्रेष्ठता, दोनों मिलकर ऐसी आर्थिक ताकत पैदा कर सकती हैं, जो अमेरिकी और यूरोपीय दबदबे को चुनौती देने में सक्षम हो। शी जिनपिंग ने भी हाथी और ड्रैगन के एक साथ चलने का प्रतीकात्मक उल्लेख करके यह संदेश दिया कि चीन भारत को प्रतिद्वंद्वी के बजाय सहभागी के रूप में देखना चाहता है। हालांकि यह बात भारत के भीतर संशय के साथ देखी जाती है, क्योंकि चीन ने बार-बार सीमा पर स्थिति को उलझाकर अविश्वास को जन्म दिया है। किंतु यह भी उतना ही सत्य है कि चीन समझता है कि भारत को स्थायी रूप से शत्रु बनाना उसके दीर्घकालिक हित में नहीं है। एशिया में स्थिरता तभी संभव है जब भारत और चीन के बीच संवाद, सहयोग और आपसी विश्वास कायम हो। इस मुलाकात का एक और महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि दोनों नेताओं ने स्पष्ट रूप से कहा कि सीमा विवादों को पूरे संबंधों की परिभाषा नहीं बनने देना चाहिए। यह एक नई सोच का संकेत है। अब तक सीमा पर तनाव ही दोनों देशों के रिश्तों का आधार बनता आया है, लेकिन यदि इसे एक अलग परिप्रेक्ष्य में रखते हुए शेष क्षेत्रों में सहयोग की संभावनाओं को खोला जाए, तो दोनों देशों के लिए विकास के अनेक द्वार खुल सकते हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने कैलाश-मानसरोवर यात्रा को पुनः प्रारंभ करने और सीधी उड़ानों की बहाली की बात करके इस सहयोग के सांस्कृतिक और सामाजिक आयामों को भी रेखांकित किया। वैश्विक राजनीति की दृष्टि से यह मुलाकात अत्यंत महत्वपूर्ण है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा हाल ही में टैरिफ लगाए जाने से भारत और चीन दोनों प्रभावित हुए हैं। यह टैरिफ केवल आर्थिक चुनौती नहीं है, बल्कि अमेरिका का रणनीतिक संदेश भी है कि वह एशियाई देशों को दबाव में रखने की नीति जारी रखेगा। ऐसे समय में भारत और चीन का एक-दूसरे के निकट आना अमेरिका और पश्चिमी दुनिया के लिए एक गंभीर संकेत है। यदि भारत और चीन अपने मतभेदों को किनारे रखकर आर्थिक सहयोग को प्राथमिकता दें, तो अमेरिका का टैरिफ हथियार बहुत हद तक निष्प्रभावी हो सकता है। यही कारण है कि शी जिनपिंग ने बहुध्रुवीय विश्व और बहुपक्षवाद को मज़बूत करने की बात की। भारत और चीन दोनों इस समय आंतरिक रूप से भी परिवर्तन के दौर से गुजर रहे हैं। भारत में नई आर्थिक नीतियों और बुनियादी ढांचे के विस्तार की योजनाओं ने विकास की रफ्तार को बढ़ाया है, वहीं चीन आर्थिक सुस्ती से जूझ रहा है और उसे नए बाज़ारों और साझेदारों की तलाश है। ऐसे में दोनों का मिलन केवल कूटनीति नहीं, बल्कि आर्थिक विवशताओं का भी परिणाम है। वैश्विक सप्लाई चेन में अमेरिका और यूरोप की पकड़ को तोड़ने के लिए भारत और चीन का सहयोग एक निर्णायक भूमिका निभा सकता है।

( पत्रकार )
फिर भी चुनौतियाँ कम नहीं हैं। सीमा विवाद केवल एक भौगोलिक रेखा का प्रश्न नहीं, बल्कि राष्ट्रीय भावनाओं और संप्रभुता के प्रश्न से जुड़ा है। भारत की जनता चीन पर अविश्वास करती है, और गलवान जैसी घटनाओं ने उस अविश्वास को गहरा किया है। चीन की ओर से पाकिस्तान को लगातार सहयोग, आतंकवाद पर उसके अस्पष्ट रुख और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत विरोधी कदम भी भारत की जनता और नेतृत्व के लिए स्वीकार्य नहीं हैं। ऐसे में केवल शब्दों से विश्वास बहाल नहीं हो सकता। इसके लिए ठोस कदम उठाने होंगे। सीमा पर वास्तविक शांति और स्थिरता का अनुभव ही दोनों देशों को आगे बढ़ने का आत्मविश्वास देगा। फिर भी इस मुलाकात को एक सकारात्मक शुरुआत माना जाना चाहिए। इतिहास गवाह है कि बड़ी सभ्यताओं के बीच रिश्ते कभी सरल नहीं होते, लेकिन यदि नेतृत्व दूरदृष्टि के साथ आगे बढ़े तो कठिनाइयों को अवसर में बदला जा सकता है। भारत और चीन केवल दो देश नहीं, बल्कि दो विचारधाराएँ, दो संस्कृतियाँ और दो सभ्यताएँ हैं। जब ये दोनों सहयोग करते हैं तो एशिया की धड़कन बदल जाती है, और जब ये टकराते हैं तो पूरी दुनिया कांप उठती है। इसलिए इस मुलाकात को हल्के में नहीं लिया जा सकता। आज जब दुनिया में नई ध्रुवीयताएँ उभर रही हैं, पश्चिमी प्रभुत्व को चुनौती दी जा रही है और ग्लोबल साउथ अपनी आवाज़ बुलंद कर रहा है, तब भारत और चीन की साझेदारी ऐतिहासिक जिम्मेदारी का रूप ले लेती है। दोनों देश यदि मिलकर काम करें तो न केवल एशिया, बल्कि पूरी दुनिया में शांति, स्थिरता और विकास की नई इबारत लिखी जा सकती है। यह तभी संभव है जब विश्वास, सम्मान और संवेदनशीलता को वास्तविक रूप में लागू किया जाए। प्रधानमंत्री मोदी और राष्ट्रपति शी जिनपिंग की मुलाकात से यह उम्मीद बंधी है कि हाथी और ड्रैगन अब एक-दूसरे को खतरे के रूप में नहीं, बल्कि अवसर के रूप में देखना शुरू करेंगे। यह एक लंबी और कठिन यात्रा है, लेकिन यदि यह यात्रा शुरू हो चुकी है तो इसे इतिहास के नए अध्याय की शुरुआत माना जा सकता है। भारत और चीन की मित्रता केवल दोनों देशों के लिए नहीं, बल्कि पूरी दुनिया के लिए निर्णायक होगी।