खेलों का संसार हमेशा से ही उत्साह, प्रतिस्पर्धा और आत्मविश्वास का प्रतीक रहा है। मैदान में दौड़ते हुए बच्चे, गेंद पर नियंत्रण करते हुए युवा और विविध खेलों में अपनी कला प्रदर्शित करते खिलाड़ी हमारी नज़र में प्रेरणा के स्रोत होते हैं। लेकिन जिस चमक और उत्साह के पीछे बच्चे खेलते हैं, उसके साथ छिपा है एक गंभीर सामाजिक और कानूनी प्रश्न: क्या सभी खेल मैदान वास्तव में सुरक्षित और न्यायसंगत हैं, या यहां भी अनुचित प्रथाओं की जड़ें जम चुकी हैं? हाल ही में खेलों में बालक श्रम और उम्र प्रमाण पत्र विवाद ने देशभर में हलचल मचा दी है। यह मामला सिर्फ एक प्रशासनिक मुद्दा नहीं है, बल्कि खेलों की नैतिकता, खिलाड़ियों की सुरक्षा और भविष्य के करियर पर गहरा प्रभाव डालता है। बालक श्रम और उम्र धोखाधड़ी की प्रथा कई बार इतनी नाज़ुक होती है कि आम जनता इसे महसूस नहीं कर पाती। कई युवा खिलाड़ी और उनके अभिभावक अपने बच्चों को खेलों में आगे बढ़ाने के लिए उम्र के आंकड़े छुपा देते हैं या फर्जी प्रमाण पत्र बनवाते हैं। ऐसा करने का उद्देश्य एक स्पष्ट प्रतिस्पर्धात्मक लाभ हासिल करना होता है, क्योंकि युवा वर्ग के खेल आयोजनों में छोटी उम्र के बच्चों के लिए अलग वर्ग निर्धारित होते हैं। इसे खेल में “समान प्रतियोगिता” बनाए रखने के नाम पर किया जाता है, लेकिन हकीकत यह है कि यह प्रथा न केवल खेल की नैतिकता को चोट पहुंचाती है, बल्कि बच्चों के स्वास्थ्य और मानसिक विकास पर भी गंभीर असर डालती है। कई मामलों में, युवा खिलाड़ी जिन्हें उनकी वास्तविक उम्र से अधिक या कम बताकर प्रतियोगिता में उतारा जाता है, शारीरिक और मानसिक रूप से उस स्तर के खेल के लिए तैयार नहीं होते। तेज़ दौड़, अधिक समय तक अभ्यास और दबाव में खेलने की आदत उन्हें जल्द थका देती है, जिससे चोटें और स्वास्थ्य समस्याएं बढ़ जाती हैं। कभी-कभी छोटे बच्चों को वयस्क स्तर के प्रशिक्षण और प्रतियोगिता में शामिल किया जाता है, जिससे उनकी हड्डियों, मांसपेशियों और हृदय प्रणाली पर अत्यधिक दबाव पड़ता है। परिणामस्वरूप उनकी लंबी अवधि की खेल क्षमता प्रभावित होती है और करियर के शुरुआती चरण में ही उनकी संभावनाएं धूमिल हो जाती हैं। इसके अलावा, मानसिक दबाव और तनाव भी उतना ही गंभीर है। जब बच्चे जानते हैं कि उन्होंने अपनी उम्र छुपाई है या प्रमाण पत्र बदलवाया है, तो उनमें लगातार भय और तनाव बना रहता है। उन्हें यह चिंता सताती रहती है कि कहीं उनका यह धोखाधड़ी का तथ्य उजागर न हो जाए। ऐसे बच्चों में आत्मविश्वास कम होता है, मानसिक असुरक्षा और दबाव बढ़ता है और लंबे समय तक खेल के प्रति रुचि बनी रहना मुश्किल हो जाता है। इस तरह की परिस्थितियाँ न केवल व्यक्तिगत जीवन को प्रभावित करती हैं, बल्कि खेलों की संस्कृति और समाज में खेल के प्रति विश्वास को भी कमजोर करती हैं। कानूनी दृष्टि से देखें तो खेलों में बालक श्रम और उम्र प्रमाण पत्र विवाद स्पष्ट रूप से निषिद्ध प्रथाओं की श्रेणी में आता है। The Child Labour (Prohibition and Regulation) Act, 1986 बच्चों को किसी भी प्रकार के शोषण या अनुचित कार्य में शामिल होने से रोकता है। इस कानून का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि बच्चे शिक्षा, स्वास्थ्य और सामान्य विकास की दृष्टि से सुरक्षित वातावरण में रहें। खेलों में उम्र छुपाना या अनुचित प्रतियोगिता में शामिल करना सीधे तौर पर इस अधिनियम के सिद्धांतों के खिलाफ है। इसके अलावा, Juvenile Justice (Care and Protection of Children) Act, 2015 भी बच्चों की सुरक्षा और कल्याण के प्रति संवेदनशील है। इस कानून के तहत किसी भी बच्चे के अधिकारों का हनन करना अपराध की श्रेणी में आता है और इसके लिए सख्त दंड का प्रावधान है। हालांकि, कानून होने के बावजूद खेलों में इस तरह की प्रथाएं पूरी तरह से समाप्त नहीं हुई हैं। इसकी वजह कई बार निगरानी तंत्र की कमजोरी, अभिभावकों और कोचों की प्रतिस्पर्धात्मक मानसिकता, और खेल संगठनों में पारदर्शिता की कमी होती है। जब बच्चों की उम्र छुपाई जाती है और उन्हें अनुचित वर्ग में प्रतिस्पर्धा के लिए भेजा जाता है, तो न केवल खेल की निष्पक्षता खतरे में पड़ती है, बल्कि बच्चों के मूलभूत अधिकारों का उल्लंघन भी होता है।इस स्थिति से निपटने के लिए केवल कानूनी दंड ही पर्याप्त नहीं हैं। खेल संगठनों, स्कूलों और अभिभावकों की जिम्मेदारी बनती है कि वे बच्चों को इस तरह की अनुचित प्रथाओं से बचाएं। उम्र प्रमाण पत्र की जांच को और कड़ा करना, खिलाड़ियों और उनके अभिभावकों को खेल की नैतिकता और स्वास्थ्य के महत्व के प्रति जागरूक करना, और बच्चों को सही मार्गदर्शन देना आवश्यक है।
सोनाली भट्टाचार्य अधिवक्ता, झारखण्ड उच्च न्यायालय रांची
इसके साथ ही, खिलाड़ियों के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य की नियमित निगरानी करना भी जरूरी है। खेल केवल जीत-हार की लड़ाई नहीं हैं, बल्कि यह बच्चों के समग्र विकास का माध्यम भी हैं। यदि हम इन खेलों में अनुचित प्रथाओं की अनुमति देते हैं, तो हम बच्चों के भविष्य के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। अनुचित प्रतिस्पर्धा और उम्र धोखाधड़ी से खेल की सच्चाई मिट जाती है, और बच्चों के सपनों को भी चोट पहुंचती है। इसलिए आवश्यक है कि समाज, खेल संगठन और सरकार मिलकर इस समस्या को गंभीरता से देखें और ठोस कदम उठाएं। खेलों में बालक श्रम और उम्र प्रमाण पत्र विवाद केवल प्रशासनिक समस्या नहीं है, बल्कि यह बच्चों की सुरक्षा, मानसिक और शारीरिक विकास और खेल की नैतिकता से जुड़ा गंभीर मुद्दा है। खेल के मैदान को निष्पक्ष, सुरक्षित और सशक्त बनाने के लिए यह आवश्यक है कि हम कानून के प्रावधानों का पालन करें, बच्चों की भलाई को प्राथमिकता दें और अनुचित प्रथाओं को जड़ से समाप्त करें। तभी खेल न केवल प्रतिस्पर्धा का माध्यम बनेंगे, बल्कि बच्चों के सपनों और स्वास्थ्य का संरक्षक भी बनेंगे। इस तरह, खेलों में अनुचित प्रथाओं को समाप्त करना न केवल कानूनी दायित्व है, बल्कि सामाजिक और नैतिक जिम्मेदारी भी है, जिससे हमारी आने वाली पीढ़ी स्वस्थ, सशक्त और न्यायसंगत खेल संस्कृति का हिस्सा बन सके।
हंसराज चौरसिया स्वतंत्र स्तंभकार और पत्रकार हैं, जो 2017 से सक्रिय रूप से पत्रकारिता में कार्यरत हैं। उन्होंने अपनी शुरुआत स्वतंत्र प्रभात से की और वर्तमान में झारखंड दर्शन, खबर मन्त्र, स्वतंत्र प्रभात, अमर भास्कर, झारखंड न्यूज़24 और क्राफ्ट समाचार में स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। साथ ही झारखंड न्यूज़24 में राज्य प्रमुख की जिम्मेदारी भी निभा रहे हैं। रांची विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में स्नातकोत्तर (2024–26) कर रहे हंसराज का मानना है कि पत्रकारिता केवल पेशा नहीं, बल्कि समाज की आवाज़ को व्यवस्था तक पहुंचाने का सार्वजनिक दायित्व है। उन्होंने राजनीतिक संवाद और मीडिया प्रचार में भी अनुभव हासिल किया है। हजारीबाग ज़िले के बरगड्डा गाँव से आने वाले हंसराज वर्तमान में रांची में रहते हैं और लगातार सामाजिक न्याय, लोकतांत्रिक विमर्श और जन मुद्दों पर लिख रहे हैं।