स्वास्थ्य-
हमारा खानपान हमारी संस्कृति का आईना होता है। भारत की गली-गली में महकते हुए पकौड़े, खस्ता समोसे, चाशनी में डूबी हुई जलेबी या हलवाई की दुकान पर सजी गुलाबजामुन की थालियाँ सिर्फ भोजन नहीं हैं, बल्कि परंपरा और जीवन के आनंद का हिस्सा भी हैं। किसी भी त्योहार, शादी या छोटे-बड़े आयोजन में इन स्नैक्स की मौजूदगी लगभग अनिवार्य लगती है। मगर इसी स्वाद और परंपरा के पीछे एक ऐसा संकट भी छिपा है जो धीरे-धीरे हमारे समाज के स्वास्थ्य को खोखला कर रहा है। आज की सरकार और स्वास्थ्य शोध संस्थान, विशेषकर भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद और नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ न्यूट्रिशन, इस संकट की ओर स्पष्ट संकेत कर रहे हैं। चर्चा इस बात की है कि जिस तरह तंबाकू और सिगरेट के पैकेटों पर वर्षों से भयावह चित्र और चेतावनी संदेश लगाए जाते हैं, उसी प्रकार अब तले हुए और चीनी से भरपूर स्नैक्स पर भी चेतावनी लेबल लगाने की योजना बनाई जा रही है। यह पहल केवल एक प्रशासनिक निर्णय नहीं है, बल्कि एक सांस्कृतिक और सामाजिक हस्तक्षेप भी है। पिछले दो दशकों में भारत की जीवनशैली में जबरदस्त बदलाव आए हैं। शहरीकरण और व्यस्त जीवनचर्या ने मिलकर भोजन की आदतों को पूरी तरह बदल दिया है। जहाँ पहले लोग घर का बना संतुलित खाना खाते थे, वहीं अब बाहर से मिलने वाले पैकेज्ड फूड, फास्ट फूड और मिठाइयाँ आम हो चुकी हैं। जलेबी जैसी पारंपरिक मिठाई भी अब हर मौसम, हर सड़क और हर गली में आसानी से उपलब्ध है। इसी तरह समोसे या पकौड़े, जो कभी घर के किचन या किसी खास अवसर के स्नैक हुआ करते थे, अब चाय के हर ठेले और दफ्तर की कैंटीन में रोज़मर्रा की खुराक बन गए हैं। इन आदतों ने स्वास्थ्य पर गहरा असर डाला है। भारत अब केवल कुपोषण का देश नहीं रह गया है, बल्कि यहाँ मोटापा, टाइप-2 मधुमेह, उच्च रक्तचाप, हृदय रोग और फैटी लिवर जैसी समस्याएँ तेजी से बढ़ रही हैं। खास बात यह है कि ये बीमारियाँ अब केवल बुज़ुर्गों तक सीमित नहीं रहीं। किशोरों और युवाओं में भी इनका प्रसार चिंताजनक गति से हो रहा है। चिकित्सकों का मानना है कि इसका बड़ा कारण है अत्यधिक तेल में तले हुए और चीनी से भरपूर खाद्य पदार्थों का लगातार सेवन। तंबाकू उत्पादों की चेतावनी की तरह ही अगर जलेबी के डिब्बे या समोसे के पैकेट पर यह लिखा हो कि अत्यधिक सेवन हृदय रोग और मोटापे का कारण बन सकता है तो उपभोक्ता पर उसका मनोवैज्ञानिक असर पड़ना तय है। यह कदम लोगों को तुरंत स्नैक खाना छोड़ देने के लिए बाध्य नहीं करेगा, लेकिन उन्हें ज़रूर सोचने पर मजबूर करेगा कि हर रोज़ की इस आदत के दूरगामी नतीजे कितने गंभीर हो सकते हैं।सरकार और स्वास्थ्य विशेषज्ञों की यह पहल इस दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है कि यह केवल चेतावनी तक सीमित नहीं रहती, बल्कि एक व्यापक जन-जागरूकता का हिस्सा बन सकती है। आज जिस तरह सिगरेट के पैकेटों पर बने डरावने चित्रों ने धूम्रपान को सामाजिक रूप से अस्वीकार्य बनाने में भूमिका निभाई, वैसा ही कुछ बदलाव तले हुए और मीठे स्नैक्स के प्रति भी संभव है। हालांकि अंतर यह रहेगा कि स्नैक्स पूरी तरह निषिद्ध नहीं होंगे, बल्कि उनका सीमित और सोच-समझकर सेवन करने का संदेश दिया जाएगा। यहाँ एक सांस्कृतिक सवाल भी उठता है। क्या ऐसा कदम हमारी खाद्य परंपराओं पर चोट करेगा? क्या जलेबी, समोसा या लड्डू जैसे स्नैक्स पर चेतावनी चिपकाना हमारी धरोहर का अपमान होगा? इस प्रश्न का उत्तर हमें गहराई से समझना होगा। परंपरा का अर्थ यह नहीं कि हम बदलते समय की ज़रूरतों की अनदेखी करें। उदाहरण के लिए, हम सभी जानते हैं कि हमारे पूर्वज दिनभर खेतों में कड़ी मेहनत करते थे, जिसके कारण उनकी ऊर्जा की खपत अधिक थी। वे यदि मिठाइयाँ या तली हुई चीजें खाते भी थे तो शरीर उन्हें सहज रूप से पचा लेता था। मगर आज का शहरी जीवन, जहाँ कामकाज का अधिकांश हिस्सा कंप्यूटर और दफ्तरों तक सीमित हो गया है, इतनी भारी-भरकम कैलोरी की माँग नहीं करता। यानी वही भोजन जो कभी शक्ति का स्रोत था, आज बीमारी का कारण बन रहा है।

ज्योतिषाचार्य एवं शिक्षाविद
ग्राम+पत्रालय -खम्भवा, टाटीझरिया, हज़ारीबाग
चलभाष-7992410277
दूसरी ओर, यह कदम खाद्य उद्योग पर भी गहरा असर डाल सकता है। जैसे तंबाकू उद्योग को चेतावनी लेबल के बाद अपने विपणन तरीकों में बदलाव करना पड़ा, वैसे ही मिठाई और स्नैक उद्योग को भी नई रणनीतियाँ बनानी होंगी। संभव है कि वे कम तेल में तले हुए विकल्प, शुगर-फ्री मिठाइयाँ या बेक किए गए स्नैक्स की ओर रुख करें। लंबे समय में यह उपभोक्ता और उद्योग दोनों के लिए फायदेमंद होगा, क्योंकि स्वास्थ्य की दृष्टि से सुरक्षित विकल्पों की माँग लगातार बढ़ रही है। हालाँकि इस नीति को लागू करने में कई चुनौतियाँ भी सामने आएँगी। पहला सवाल यह है कि भारत जैसा विशाल और विविधता से भरा देश, जहाँ स्नैक्स का बाज़ार अधिकतर असंगठित है, वहाँ यह नियम कैसे लागू किया जाएगा? गली-मोहल्ले के ठेलों और ढाबों पर बिकने वाले समोसे या जलेबी पर चेतावनी लगवाना व्यावहारिक रूप से कठिन होगा। संभवतः शुरुआत पैकेज्ड और ब्रांडेड उत्पादों से करनी होगी, और धीरे-धीरे अन्य स्तरों तक इसका विस्तार करना होगा।दूसरी चुनौती है उपभोक्ता की मानसिकता। हम भारतीय स्वाद और मेहमाननवाजी के मामले में बड़े भावुक होते हैं। जलेबी और समोसे को हम केवल स्नैक नहीं मानते, बल्कि इन्हें घर की गर्मजोशी और रिश्तों की मिठास से जोड़ते हैं। ऐसे में चेतावनी लेबल का असर तंबाकू की तरह सीधा और कठोर नहीं होगा। लोगों को यह समझाना होगा कि सरकार उनका स्वाद छीनना नहीं चाहती, बल्कि उनके स्वास्थ्य की रक्षा करना चाहती है। फिर भी, यह स्वीकार करना होगा कि स्वास्थ्य चेतावनी लेबल केवल एक शुरुआती कदम है। असली बदलाव तब आएगा जब शिक्षा, मीडिया और सामुदायिक कार्यक्रमों के जरिए स्वस्थ खानपान की आदतें विकसित की जाएँगी। बच्चों को बचपन से ही यह सिखाना होगा कि मीठा और तला हुआ भोजन स्वादिष्ट तो है, लेकिन इसे सीमित मात्रा में लेना ही समझदारी है। स्कूलों और कॉलेजों की कैंटीनों में स्वस्थ विकल्पों को प्राथमिकता देना होगी। वहीं, टेलीविज़न और सोशल मीडिया विज्ञापनों में भी संतुलित आहार को बढ़ावा देने की ज़रूरत होगी। इस संदर्भ में यह पहल आधुनिक भारत की स्वास्थ्य नीतियों की दिशा तय करने वाली हो सकती है। जिस तरह तंबाकू नियंत्रण नीतियों ने एक नई स्वास्थ्य चेतना पैदा की, उसी तरह स्नैक चेतावनी लेबल भारत को “पोषण सुरक्षा” की ओर ले जाने का जरिया बन सकते हैं। यह कदम हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि स्वाद और स्वास्थ्य के बीच संतुलन कहाँ और कैसे बनाया जाए। अंततः, यह सच है कि समोसा, जलेबी या लड्डू हमारी सांस्कृतिक थाली से पूरी तरह गायब नहीं होंगे। वे हमारे त्योहारों और विशेष अवसरों का हिस्सा बने रहेंगे। लेकिन यदि चेतावनी लेबल हमें यह याद दिलाएँ कि रोज़मर्रा की ज़िंदगी में इनके अत्यधिक सेवन से हृदय रोग, मोटापा या मधुमेह जैसी बीमारियाँ घर कर सकती हैं, तो यह चेतावनी हमारे लिए वरदान साबित होगी।भारत एक ऐसे मोड़ पर खड़ा है जहाँ आर्थिक प्रगति के साथ-साथ जीवनशैली संबंधी बीमारियाँ भी तेज़ी से बढ़ रही हैं। इस चुनौती का सामना करने के लिए ज़रूरी है कि हम साहसी और दूरदर्शी कदम उठाएँ। स्नैक्स पर तंबाकू-शैली चेतावनी लेबल का प्रस्ताव इसी दिशा में उठाया गया एक क्रांतिकारी कदम है। यह पहल हमें न केवल स्वास्थ्य के प्रति अधिक सचेत बनाएगी, बल्कि आने वाली पीढ़ियों को भी यह सिखाएगी कि स्वाद का असली आनंद तभी है जब शरीर स्वस्थ और जीवन संतुलित हो।