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विरोध की सीमा कहां खत्म होती है?

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विरोध
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संपादकीय-

मुंबई यह शहर सिर्फ महाराष्ट्र की राजधानी नहीं, बल्कि भारत के सपनों की राजधानी है। यहाँ हर दिन लाखों लोग दौड़ते-भागते हैं, जीवन की लय निरंतर चलती रहती है। लेकिन बीते दिनों इस लय को थाम दिया गया। सड़कों पर भीड़ उतरी, आवाज़ें गूंज उठीं, रेल और बसें ठहर गईं। मराठा आरक्षण के सवाल पर पांच दिनों तक यह महानगर आंदोलन के साए में डूबा रहा। सरकार झुकी, मांगें मानी गईं, पर पीछे रह गया एक गहरा सवाल—विरोध आखिर कहां तक और किस रूप में?आरक्षण की मांग नई नहीं है। मराठा समाज का यह संघर्ष दशकों से चला आ रहा है। एक ऐसा समुदाय जिसने इतिहास में वीरता, राजनीति और समाज सेवा की परंपराएं गढ़ीं, आज अपने हिस्से का हक मांगने सड़कों पर है। उनकी पीड़ा असत्य नहीं हो सकती। लेकिन उनके आंदोलन का तरीका, उसकी तीव्रता और उससे उपजा ठहराव क्या यह लोकतांत्रिक मर्यादाओं में है? लोकतंत्र का सौंदर्य इसी में है कि हर आवाज़ सुनी जाए। किसी भी वर्ग को यह महसूस न हो कि वह व्यवस्था से उपेक्षित है। लेकिन लोकतंत्र का अनुशासन भी यही कहता है कि अपनी आवाज़ उठाते हुए दूसरों की आवाज़ न दबे। आंदोलन तब तक न्यायसंगत है जब तक वह समाज की सामूहिक गति को बाधित न करे। जब आम जनता की बसें जलती हैं, दुकानों के शटर बंद करवाए जाते हैं, यात्री फंसते हैं, मजदूर की दिहाड़ी छिनती है तो सवाल उठना लाज़मी है कि यह संघर्ष किसके लिए और किस कीमत पर? बॉम्बे हाई कोर्ट ने इसी पीड़ा को शब्द दिए। अदालत ने कहा कि आंदोलन के दौरान हुए नुकसान और आम लोगों की असुविधा पर जवाब देना होगा। अदालत की नाराज़गी दरअसल जनता की आवाज़ थी उस जनता की, जो आंदोलन का हिस्सा नहीं थी, पर आंदोलन का बोझ ढो रही थी। यहां हमें ठहरकर सोचना चाहिए। आरक्षण की बहस महज़ अधिकारों की बहस नहीं है, यह असमानता और अवसरों की गहरी समस्या है। मराठा समाज यह मानता है कि उनकी आर्थिक और शैक्षिक स्थिति पिछड़े वर्गों जैसी है, इसलिए उन्हें भी आरक्षण का लाभ मिलना चाहिए। लेकिन संविधान में जो सीमाएं तय हैं 50 प्रतिशत आरक्षण की मर्यादा, न्यायालय के निर्देश, और समानता का मूल सिद्धांत उनसे टकराए बिना यह संभव कैसे होगा? यही कारण है कि बार-बार यह मामला अदालतों तक जाता है और बार-बार समाधान अधूरा रह जाता है। यहीं से राजनीति और समाजशास्त्र का टकराव शुरू होता है।

    हंसराज चौरसिया ( पत्रकार )हंसराज चौरसिया
    ( पत्रकार )

राजनीति तत्काल राहत देना चाहती है, समाजशास्त्र और कानून दीर्घकालिक संतुलन की मांग करते हैं। आंदोलनकारी मानते हैं कि बिना दबाव के सरकार उनकी नहीं सुनेगी, सरकार मानती है कि बिना आश्वासन के भीड़ शांत नहीं होगी। इस खींचतान में आम आदमी पिसता है। मुंबई में पांच दिन का ठहराव केवल आर्थिक नुकसान नहीं था, यह व्यवस्था पर एक प्रश्नचिह्न था। यह दिखाता है कि संवाद के रास्ते सिकुड़ते जा रहे हैं। यदि शासन और जनता के बीच भरोसे का पुल मज़बूत होता, तो शायद लोग सड़क पर नहीं उतरते। और यदि आंदोलनकारी अपनी शक्ति का इस्तेमाल सिर्फ संवाद के लिए करते, तो शायद आम जनता को इतनी पीड़ा न होती। हमें यह भी मानना होगा कि आरक्षण ही हर समस्या का हल नहीं है। यदि समाज के किसी वर्ग को अवसर नहीं मिल पा रहे हैं, तो उसके पीछे शिक्षा की कमी, रोजगार नीति की खामियां और ग्रामीण-शहरी असमानता जैसे गहरे कारण हैं। केवल आरक्षण का विस्तार करके हम इन समस्याओं को ढक सकते हैं, हल नहीं कर सकते। मराठा समाज के लिए भी स्थायी समाधान यही होगा कि शिक्षा और कौशल विकास के वास्तविक अवसर बढ़ें, कृषि और उद्योग में नई नीतियां बनें, और युवाओं को विकल्प मिलें। अब मूल प्रश्न पर लौटें विरोध कहां तक? विरोध हर लोकतंत्र का प्राण है। बिना असहमति के लोकतंत्र अधूरा है। लेकिन विरोध तब तक प्राणवान है, जब तक वह दूसरों का श्वास न रोक दे। जब विरोध हिंसक हो जाए, जब वह समाज के सबसे कमजोर वर्गों को सबसे अधिक पीड़ा दे, तो उसकी आत्मा खो जाती है। मराठा समाज की पीड़ा वास्तविक है, परंतु उसका समाधान भी उतना ही वास्तविक होना चाहिए। नारे, जुलूस और हड़तालें तत्कालीन असर डाल सकती हैं, लेकिन स्थायी परिवर्तन गहन नीतियों और संवाद से ही आता है। सरकार को चाहिए कि वह इस मुद्दे को एक बार हमेशा के लिए हल करने की हिम्मत दिखाए। केवल चुनावी वादों और अस्थायी आदेशों से काम नहीं चलेगा।समाज की एकता सबसे बड़ी पूंजी है। यदि हर वर्ग अपनी मांगों के लिए सड़क पर उतरे और व्यवस्था को ठप कर दे, तो देश की गाड़ी आगे कैसे बढ़ेगी? यह गाड़ी तभी आगे बढ़ेगी जब सभी यात्री एक-दूसरे का हाथ थामें, अपनी सीटों को लेकर झगड़े नहीं बल्कि साझा सफर पर ध्यान दें। अंततः यही कहना होगा कि विरोध ज़रूरी है, पर उसकी सीमा भी उतनी ही ज़रूरी है। लोकतंत्र में संघर्ष का सौंदर्य तब है जब वह संवाद और समाधान की ओर ले जाए, न कि अव्यवस्था और ठहराव की ओर। मराठा आंदोलन हमें यही सीख देता है कि अधिकारों की लड़ाई लंबी है, लेकिन उसकी राह अहिंसा, संयम और समाजहित से होकर ही गुजरती है।

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राज्य प्रमुख
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हंसराज चौरसिया स्वतंत्र स्तंभकार और पत्रकार हैं, जो 2017 से सक्रिय रूप से पत्रकारिता में कार्यरत हैं। उन्होंने अपनी शुरुआत स्वतंत्र प्रभात से की और वर्तमान में झारखंड दर्शन, खबर मन्त्र, स्वतंत्र प्रभात, अमर भास्कर, झारखंड न्यूज़24 और क्राफ्ट समाचार में स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। साथ ही झारखंड न्यूज़24 में राज्य प्रमुख की जिम्मेदारी भी निभा रहे हैं। रांची विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में स्नातकोत्तर (2024–26) कर रहे हंसराज का मानना है कि पत्रकारिता केवल पेशा नहीं, बल्कि समाज की आवाज़ को व्यवस्था तक पहुंचाने का सार्वजनिक दायित्व है। उन्होंने राजनीतिक संवाद और मीडिया प्रचार में भी अनुभव हासिल किया है। हजारीबाग ज़िले के बरगड्डा गाँव से आने वाले हंसराज वर्तमान में रांची में रहते हैं और लगातार सामाजिक न्याय, लोकतांत्रिक विमर्श और जन मुद्दों पर लिख रहे हैं।
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