ताड़पत्र पांडुलिपि पर टिकी है अमराई की पूजा की आत्मा
संपादकीय-
पश्चिम बंगाल की मिट्टी में देवी दुर्गा की आराधना केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं है, यह एक सांस्कृतिक धड़कन है, एक ऐसी आत्मा है जो पीढ़ियों से इस भूमि को ऊर्जा और आस्था से भरती रही है। इसी परंपरा की सबसे अनुपम मिसाल दुर्गापुर के अमराई गांव में स्थित चट्टोपाध्याय परिवार की दुर्गा पूजा है, जो तीन सौ वर्षों से भी अधिक समय से निरंतर चली आ रही है। यह केवल एक पूजा नहीं, बल्कि इतिहास की जीवित धरोहर है, जहां श्रद्धा और परंपरा का संगम आज भी उतनी ही भव्यता से होता है, जितना पहली बार हुआ होगा। परंतु इस पूजा की सबसे बड़ी विशेषता एक ऐसी ताड़पत्र पांडुलिपि है, जिसकी उम्र आठ सौ वर्षों से भी अधिक मानी जाती है और जिसमें संस्कृत और पाली दोनों लिपियों में मां चंडी की पूजा के सत्रह सौ श्लोक अंकित हैं। यह पांडुलिपि केवल अक्षरों का संग्रह नहीं, बल्कि एक जीवित परंपरा की आत्मा है।
इसे काशी से विशेष प्रयासों द्वारा मंगाया गया था और तभी से अमराई गांव की दुर्गा पूजा इसी पांडुलिपि के आधार पर होती रही है। इसमें महाष्टमी से लेकर दशमी तक की संपूर्ण विधियों और मंत्रों का विस्तारपूर्वक उल्लेख है। जब महाअष्टमी के दिन सप्तशती होम में इन श्लोकों का पाठ पंडित की गंभीर और गूंजती आवाज़ में होता है, तो पूरा मंडप एक अद्वितीय दिव्यता से भर उठता है। घी और बेल की लकड़ी की आहुति से उठती अग्नि की लपटें जैसे आसमान तक पहुंचने लगती हैं और श्रद्धालुओं के हृदय में यह अनुभूति भर जाती है कि वे केवल एक धार्मिक कर्मकांड का हिस्सा नहीं, बल्कि एक अनन्त परंपरा की निरंतरता के साक्षी हैं।परंपरा की यह बुनियाद केवल धार्मिक अनुष्ठानों से नहीं, बल्कि उन लोगों की समर्पित साधना से भी जुड़ी है, जिन्होंने सदियों तक इसकी लौ को बुझने नहीं दिया। टोला पंडित प्रशांत भट्टाचार्य आज इस विरासत के सबसे महत्वपूर्ण संरक्षक हैं। वे पैतृक स्रोतों से पाली लिपि पढ़ने की अद्वितीय विद्या रखते हैं और इस पांडुलिपि के श्लोकों का सस्वर उच्चारण करते हैं। लेकिन यही वह स्थान है, जहां चिंता और भविष्य का संकट उभरता है। प्रशांत भट्टाचार्य स्वीकार करते हैं कि उनके वंश में कोई भी अब इस लिपि को सीखने की इच्छा नहीं रखता। युवा पीढ़ी आधुनिक जीवन की दौड़-भाग में उलझी हुई है और उन्हें इस प्राचीन धरोहर से जुड़ने की प्रेरणा नहीं मिल रही। यही वह बिंदु है, जहां यह संपूर्ण परंपरा संकटग्रस्त प्रतीत होती है।
इतिहास के इस मंदिर में अब भी समय की गूंज सुनाई देती है। चट्टोपाध्याय परिवार ने सबसे पहले गांव में लक्ष्मी-जनार्दन का मंदिर बनवाया और उसके बाद दुर्गा मंडप का निर्माण हुआ। यह दुर्गा मंडप तीन सौ वर्षों से समय के थपेड़ों को झेलते हुए अब भी मजबूती से खड़ा है। चूने और सीसे से बनी इसकी दीवारें यह बताती हैं कि परंपरा केवल विश्वास की नींव पर नहीं, बल्कि वास्तुकला की अद्भुत तकनीक पर भी खड़ी होती है। यद्यपि भोग मंदिर और मंच को सुरक्षा कारणों से तोड़ना पड़ा, परंतु मुख्य दुर्गा मंडप आज भी जीवित इतिहास की तरह गांव की आत्मा में बसा हुआ है। इस पूजा का सामाजिक स्वरूप भी अद्वितीय है। यहां केवल परिवार ही नहीं, बल्कि पूरा गांव और आसपास का इलाका एकत्र होता है। महाशष्ठी से लेकर विजयादशमी तक जब मंगलदीप निरंतर जलता रहता है, तो उसका प्रकाश केवल देवी के चरणों को नहीं, बल्कि पूरे गांव की आत्मा को आलोकित करता है। एक घंटे तक चलने वाली आरती में जब भक्तगण शामिल होते हैं, तो वह केवल आराधना नहीं रह जाती, बल्कि एक सामूहिक अनुभव बन जाती है जिसमें हर व्यक्ति स्वयं को इस परंपरा का हिस्सा मानता है। यही कारण है कि देश-विदेश में फैले हुए गांव के लोग भी इस अवसर पर लौटकर आते हैं और इस अनुष्ठान में सम्मिलित होकर अपनी जड़ों से पुनः जुड़ते हैं। परंपरा के भीतर भी समय के साथ परिवर्तन का प्रवाह स्वाभाविक है। इस पूजा में कभी बलि की प्रथा प्रचलित थी, परंतु अब वैष्णव परंपरा के अनुसार पूजा की जाती है।
यह परिवर्तन दर्शाता है कि परंपरा कठोर नहीं, बल्कि लचीली होती है। यह समाज की बदलती मान्यताओं के साथ स्वयं को ढाल लेती है, किंतु अपनी मूल आत्मा को सुरक्षित रखती है। अमराई की दुर्गा पूजा इसी सत्य की प्रमाण है कि श्रद्धा और परंपरा का मूल रूप कभी नष्ट नहीं होता, केवल उसका स्वरूप समय के अनुसार बदलता रहता है। परंतु इन सबके बीच सबसे बड़ी चुनौती उस ताड़पत्र पांडुलिपि और उसे पढ़ने वाले विद्वानों की घटती संख्या है। परिवार के वरिष्ठ सदस्य शिबा प्रसाद चट्टोपाध्याय स्पष्ट कहते हैं कि पहले जिले में दो स्थानों पर यह यज्ञ होता था, लेकिन अब केवल अमराई में ही शेष है। यदि भविष्य में पाली पढ़ने वाला कोई पंडित नहीं मिला, तो यह पूजा अपने मूल स्वरूप में कर पाना असंभव हो जाएगा। यह चिंता केवल एक परिवार की नहीं, बल्कि उस संपूर्ण सांस्कृतिक विरासत की है जो भारत की पहचान है। आज जब आधुनिकता और तकनीक की आंधी परंपराओं को हिलाकर रख रही है, तब यह सवाल और भी गहरा हो जाता है कि क्या हम अपनी धरोहरों को संरक्षित रख पाएंगे? क्या आने वाली पीढ़ियां इस पांडुलिपि के श्लोकों को उतनी ही श्रद्धा और लगन से पढ़ेंगी, जितनी आज पढ़ी जाती है? या फिर यह सब धीरे-धीरे केवल इतिहास के पन्नों में दर्ज होकर रह जाएगा? इस प्रश्न का उत्तर आसान नहीं है। लेकिन एक बात स्पष्ट है कि यदि समाज और परिवार ने मिलकर इस परंपरा को संरक्षित करने का संकल्प नहीं लिया, तो यह अमूल्य धरोहर खो सकती है। आज की पीढ़ी को केवल तकनीकी शिक्षा नहीं, बल्कि सांस्कृतिक शिक्षा की भी आवश्यकता है। यदि बच्चे यह समझें कि यह पांडुलिपि केवल पुरानी लिपियों का संग्रह नहीं, बल्कि उनकी जड़ों से जुड़ने का माध्यम है, तो शायद वे इसे सीखने की प्रेरणा पाएं।सांस्कृतिक धरोहरें केवल संग्रहालयों में संरक्षित करने की वस्तुएं नहीं होतीं, वे तभी जीवित रहती हैं जब लोग उन्हें अपने जीवन में जीते हैं। अमराई की दुर्गा पूजा इसका सबसे सुंदर उदाहरण है। यह केवल पूजा का उत्सव नहीं, बल्कि यह प्रमाण है कि आस्था किस प्रकार समय और परिस्थितियों के बावजूद निरंतरता बनाए रख सकती है। यहां की आरती, यहां का सप्तसती होम, यहां का मंगलदीप और यहां की सामूहिक भागीदारी सब मिलकर यह संदेश देती है कि जब तक लोग अपनी जड़ों से जुड़े रहेंगे, तब तक परंपरा जीवित रहेगी। आज इस पूजा के संरक्षण की जिम्मेदारी केवल चट्टोपाध्याय परिवार या टोला पंडितों की नहीं है, बल्कि यह समाज के हर व्यक्ति की जिम्मेदारी है। भारत जैसे देश में जहां सांस्कृतिक विविधता हमारी सबसे बड़ी शक्ति है, वहां ऐसी परंपराएं हमारी सामूहिक धरोहर हैं।
यदि हम इन्हें सहेजेंगे नहीं, तो हम केवल अपनी पहचान ही नहीं खो देंगे, बल्कि आने वाली पीढ़ियों को एक खालीपन भी सौंपेंगे। अमराई गांव की दुर्गा पूजा हमें यह भी सिखाती है कि परंपरा का मूल्य केवल धार्मिक आस्था में नहीं, बल्कि सामाजिक एकता और सांस्कृतिक निरंतरता में भी है। यहां जब हर वर्ग का व्यक्ति शामिल होता है, तो वह यह संदेश देता है कि आस्था सबको एक सूत्र में बांध सकती है। यह पूजा केवल देवी की आराधना नहीं, बल्कि मानवीय संबंधों का उत्सव भी है। यदि इस पूजा की आत्मा को बचाए रखना है, तो हमें ताड़पत्र पांडुलिपि को केवल एक प्राचीन धरोहर मानकर नहीं, बल्कि भविष्य की पीढ़ियों के लिए जीवित विरासत मानकर संरक्षित करना होगा। इसके लिए आवश्यक है कि पाली और संस्कृत जैसी लुप्तप्राय भाषाओं को फिर से सीखने के प्रयास किए जाएं। विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में इस तरह की शिक्षा को प्रोत्साहित किया जाए। तकनीकी साधनों का उपयोग करके इस पांडुलिपि का डिजिटलीकरण किया जा सकता है, ताकि आने वाले समय में यह ज्ञान सुरक्षित रह सके। अमराई की दुर्गा पूजा हमें यह भी चेतावनी देती है कि यदि हम समय रहते सजग नहीं हुए, तो हमारी सांस्कृतिक धरोहरें धीरे-धीरे विलुप्त हो जाएंगी। यह केवल पूजा की परंपरा का प्रश्न नहीं, बल्कि उस आत्मा का प्रश्न है जो हमारी सभ्यता को पहचान देती है। इसलिए आज आवश्यकता है कि हम सभी इस परंपरा को जीवित रखने का संकल्प लें। केवल अमराई नहीं, बल्कि पूरे भारत में फैली ऐसी असंख्य परंपराएं हैं जिन्हें संरक्षण की आवश्यकता है। जब हम इन्हें सहेजेंगे, तभी हम अपनी संस्कृति और अपनी पहचान को बचा पाएंगे। अमराई गांव की दुर्गा पूजा केवल अतीत की स्मृति नहीं, बल्कि भविष्य की प्रेरणा है। यह हमें सिखाती है कि आस्था और परंपरा जब समाज की आत्मा में रच-बस जाती है, तो वह कभी मिटती नहीं। वह पीढ़ियों तक लोगों के जीवन को आलोकित करती रहती है।

