हजारीबाग की धरती से उठी जय माई की गूंज अब स्मृतियों में शेष
संपादकीय-
हजारीबाग की धरती हमेशा से अपनी सादगी, अध्यात्म और आस्था के लिए जानी जाती रही है। इस धरती ने अनेक संत, विद्वान और कर्मयोगी जनमे हैं जिन्होंने न केवल समाज का मार्गदर्शन किया बल्कि आने वाली पीढ़ियों को भी दिशा दी। इसी पावन धरती से एक स्वर उठा था जय माई, जो धीरे-धीरे श्रद्धा, विश्वास और साधना का प्रतीक बन गया। यह स्वर था पंडित अवधेश पाठक का, जिनका जीवन एक दीपक की तरह रहा जो ज्ञान, भक्ति और सेवा के प्रकाश से संसार को आलोकित करता रहा। आज जब वह स्वर स्मृतियों में विलीन हो चुका है, तब ऐसा लगता है जैसे हजारीबाग की मिट्टी से उठी एक गूंज सन्नाटे में समा गई हो। परंतु यह गूंज केवल ध्वनि नहीं थी, यह उस आत्मा की पुकार थी जिसने धर्म को मानवता के साथ जोड़ा और जीवन को साधना का पर्याय बना दिया। ज्योतिषाचार्य सह शिक्षाविद् डॉ. साकेत कुमार पाठक ने श्रद्धांजलि देते हुए कहा कि अवधेश पाठक का जीवन केवल एक व्यक्ति की कथा नहीं, बल्कि एक ऐसी परंपरा का परिचय है, जो भारतीय संस्कृति की आत्मा में बसी हुई है। उनका जन्म 12 मई 1957 को टाटीझरिया प्रखंड के खम्भवा गाँव में हुआ, और यह दिन इस क्षेत्र के लिए केवल एक बालक के जन्म का नहीं, बल्कि एक युग की शुरुआत का प्रतीक बन गया। उनके पिता श्री मोहन पाठक स्वयं एक ज्योतिषाचार्य, तांत्रिक साधक और अद्वितीय विद्वान थे। उन्होंने अपने पुत्र के भीतर जो संस्कार रोपे, वही आगे चलकर समाज में एक ऐसी छवि के रूप में प्रकट हुए, जहाँ ज्ञान, आस्था और सेवा का अद्भुत संगम दिखाई देता था। डॉ. पाठक ने कहा कि अवधेश पाठक जी का व्यक्तित्व बहुआयामी था। वे केवल एक ज्योतिषाचार्य नहीं, बल्कि एक दार्शनिक, कलाकार, समाजसेवी और मानवीय संवेदनाओं के मूर्त रूप थे।
उनका जीवन कर्मकांड या पंडिताई के दायरे में सीमित नहीं था। वे जीवन को एक साधना मानते थे और हर कार्य को ईश्वर की सेवा का माध्यम समझते थे। उनके मुख से निकला जय माई केवल एक उद्घोष नहीं था, वह उनके अस्तित्व का प्रतीक था। उनके लिए ‘माई’ शक्ति थी, आस्था थी, मातृत्व था और समर्पण का स्वरूप थी। जब वे किसी कठिन निर्णय के क्षण में जय माई कहते, तो वह केवल शब्द नहीं, बल्कि एक आत्मिक ऊर्जा का उद्गार होता था। उन्होंने कहा कि अवधेश पाठक जी का प्रभाव केवल अपने गाँव या राज्य तक सीमित नहीं था। बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड और मुंबई जैसे महानगरों तक उनका नाम श्रद्धा से लिया जाता था। फिल्म इंडस्ट्री में उनके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। वहाँ भी वे ज्योतिष के मार्गदर्शक के रूप में नहीं, बल्कि एक परामर्शदाता और सांस्कृतिक दूत के रूप में देखे जाते थे। उन्होंने अनेक फिल्मों और धारावाहिकों के नाम सुझाए, शुभ मुहूर्त तय किए और कई कलाकारों के जीवन में सही दिशा देने का कार्य किया। बड़े-बड़े निर्माता और अभिनेता उनके निर्णयों को अंतिम मानते थे। कई बार फिल्म सेट पर जब विवाद या तनाव होता, तब उनका शांत, संयमित और मधुर व्यवहार वातावरण को शीतल बना देता था। उनके स्नेहपूर्ण शब्द सबके मन में विश्वास का संचार करते थे। यही कारण था कि इंडस्ट्री में लोग उन्हें केवल पंडित जी नहीं, बल्कि पथप्रदर्शक कहा करते थे। डॉ. पाठक ने भावुक होकर कहा कि अवधेश पाठक जी की सबसे बड़ी विशेषता थी— उनका सर्वधर्म समभाव। वे मंदिर में आरती करते थे, तो मजार पर इबादत में भी उतनी ही श्रद्धा से सिर झुकाते थे। वे गुरुद्वारे में गुरु वाणी सुनते थे, और चर्च में उपदेशों को आत्मसात करते थे। उनके लिए धर्म का अर्थ सीमाएँ खड़ी करना नहीं, बल्कि मनुष्यता के भीतर प्रेम, करुणा और शांति की अनुभूति कराना था। वे मानते थे कि धर्म यदि विभाजन करे तो वह धर्म नहीं, बल्कि अज्ञान है। उनके जीवन का यही दर्शन उन्हें समाज के हर वर्ग के बीच सम्मानित बनाता था। डॉ. पाठक ने कहा कि अवधेश पाठक की ज्योतिषीय प्रतिभा अतुलनीय थी। ग्रहों और नक्षत्रों की गणना उनके लिए केवल गणित नहीं, एक गूढ़ आध्यात्मिक संवाद था। वे कहा करते थे कि ग्रह जीवन का लेखा नहीं लिखते, वे केवल चेतावनी देते हैं। भाग्य नहीं, बुद्धि और श्रद्धा ही मनुष्य को दिशा देती है। उनके इस दृष्टिकोण ने ज्योतिष को अंधविश्वास से मुक्त कर वैज्ञानिकता और मानवता के धरातल पर प्रतिष्ठित किया। कई बार जब लोग उनके पास समस्याएँ लेकर आते, तो वे समाधान के साथ जीवन का नया दृष्टिकोण भी दे जाते। वे कहते, समस्या कोई बाहरी शक्ति नहीं, वह हमारे भीतर के संतुलन की परीक्षा है। इसीलिए उनके पास जाकर लौटने वाला व्यक्ति केवल भविष्यवाणी नहीं, आत्मबल लेकर लौटता था। उनका जीवन संघर्षों से भरा रहा, पर उन्होंने कभी हार नहीं मानी। बड़े बेटे की असमय मृत्यु ने उन्हें भीतर से तोड़ दिया, लेकिन उन्होंने अपने दुःख को भक्ति में रूपांतरित कर दिया।
प्रमेह और उच्च रक्तचाप जैसी बीमारियों ने उन्हें घेरा, गैंगरिन के कारण पैर की अंगुली तक खोनी पड़ी, परंतु उनकी आस्था ने कभी उनका साथ नहीं छोड़ा। वे कहा करते थे कि शरीर कष्ट में हो सकता है, लेकिन आत्मा को कोई रोग नहीं छू सकता। हर पीड़ा में उनका संबल था जय माई । यही वह उद्घोष था जिसने उन्हें हर संकट से पार लगाया। अवधेश पाठक का जीवन आधुनिक समाज के लिए एक आदर्श है, जहाँ आस्था को विज्ञान से और धर्म को मानवता से जोड़ना आवश्यक हो गया है। उन्होंने यह दिखाया कि ज्योतिष केवल भविष्य बताने की कला नहीं, बल्कि जीवन को अनुशासित और उद्देश्यपूर्ण बनाने की विद्या है। वे शिक्षा और संस्कार को सबसे बड़ा धर्म मानते थे। अपने बच्चों में उन्होंने वही संस्कार रोपे, जो उन्हें अपने पिता से मिले थे सत्य, संयम और सेवा। उन्होंने कहा कि अवधेश पाठक जी का जीवन यह भी सिखाता है कि महानता केवल प्रसिद्धि से नहीं आती, बल्कि विनम्रता और समर्पण से बनती है। वे चाहे किसी बड़े मंच पर हों या छोटे गाँव की चौपाल में, उनके व्यवहार में कभी भेद नहीं होता था। वे सभी से समान आत्मीयता से मिलते। यही कारण था कि वे हर वर्ग, हर समुदाय और हर पीढ़ी के लिए समान रूप से प्रिय रहे। उनके जीवन में विरोध नहीं, संवाद था, आलोचना नहीं, स्वीकार था, और दूरी नहीं, अपनत्व था। कला और संस्कृति के क्षेत्र में भी उनका योगदान अमूल्य रहा। उन्होंने कई हिंदी और भोजपुरी फिल्मों में अभिनय किया। उनके अभिनय में वही सरलता थी जो उनके जीवन में थी। उनके चेहरे पर भाव नहीं, दर्शन झलकता था। वे मंच पर नहीं, समाज में अभिनय करते थे सादगी, श्रद्धा और सेवा के अभिनय का। उनके लिए अभिनय एक कला नहीं, बल्कि जीवन की अभिव्यक्ति थी। वे कहा करते थे कि कला तभी दिव्य है जब वह मनुष्य के भीतर की अच्छाई को जगाए। अवधेश पाठक जैसे व्यक्तित्व दुर्लभ होते हैं। उन्होंने समाज को यह सिखाया कि ज्ञान और आस्था, विज्ञान और भक्ति, तर्क और संवेदना ये सब विरोधी नहीं, एक ही वृक्ष की शाखाएँ हैं। उन्होंने इन सबको अपने जीवन में पिरोया और एक ऐसा उदाहरण प्रस्तुत किया जो आज की पीढ़ी के लिए भी उतना ही प्रासंगिक है। आज जब हम उन्हें स्मरण करते हैं, तो यह केवल शोक का क्षण नहीं, आत्मचिंतन का भी अवसर है। हम ऐसे युग में हैं जहाँ लोग धर्म के नाम पर विभाजित हो रहे हैं, जहाँ विश्वास पर संदेह और संवाद पर शोर का पहरा है। ऐसे समय में अवधेश पाठक जैसे लोग हमें याद दिलाते हैं कि सच्चा धर्म वह है जो जोड़ता है, न कि तोड़ता है।
वे कहते थे कि मनुष्य की सबसे बड़ी पूजा है किसी के दुःख को कम करना। यही उनका जीवन-मंत्र था। डॉ. पाठक ने कहा कि उन्होंने स्वयं अवधेश पाठक जी के सान्निध्य में जीवन के अनेक गूढ़ अर्थ सीखे। वे कहते हैं कि अवधेश जी से मैंने यह सीखा कि विद्वता तब तक अधूरी है जब तक उसमें करुणा का भाव न हो। उनके सान्निध्य में बैठना किसी ग्रंथ के अध्ययन से कम नहीं था। उनके एक-एक शब्द में अनुभव की रोशनी होती थी, जो जीवन की दिशा दिखा जाती थी। उन्होंने कहा कि आज जब हम जय माई कहते हैं, तो वह केवल श्रद्धा का शब्द नहीं, बल्कि उस आस्था की ध्वनि है जो अवधेश पाठक के जीवन से निकलकर हमारे भीतर बस गई है। उनका जाना हमारे लिए एक युगांत है, परंतु उनकी स्मृति, उनकी विचारधारा और उनकी वाणी अमर है। वे शरीर से चले गए, पर विचार बनकर इस समाज के हर आस्तिक, हर साधक और हर कर्मशील व्यक्ति के भीतर जीवित हैं।हजारीबाग की यह भूमि, जिसने उन्हें जन्म दिया, अब उनकी स्मृतियों की रक्षक बन गई है। जब भी इस मिट्टी पर कोई दीप जलेगा, कोई आरती गूंजेगी, तो उसमें जय माई की वही अनुगूंज सुनाई देगी जो कभी अवधेश पाठक की वाणी से निकलती थी। वे केवल अपने परिवार या अनुयायियों के नहीं, बल्कि इस पूरे क्षेत्र की आत्मा थे। डॉ. पाठक ने अंत में कहा कि अवधेश पाठक जी का जाना एक रिक्तता है, पर उनकी शिक्षाएँ हमारे भीतर ऊर्जा बनकर जीवित हैं। उन्होंने हमें यह सिखाया कि धर्म का अर्थ भय नहीं, प्रेम है, साधना का अर्थ पलायन नहीं, कर्म है और भक्ति का अर्थ केवल नमस्कार नहीं, सेवा है। वे कहते थे कि ईश्वर वही है जो तुम्हारे भीतर है, उसे खोजो और उसका आभार मानो। यही उनका अंतिम संदेश था।
आज जब लोग उन्हें याद करते हैं, तो आँसुओं में भी मुस्कान है, क्योंकि उनके जीवन की सार्थकता दुःख से नहीं, प्रेरणा से मापी जाती है। वे चले गए, पर उनके विचार अब भी हवा में तैरते हैं, मंदिर की घंटियों में गूंजते हैं, आरती के दीपों में झिलमिलाते हैं और हर उस हृदय में बसते हैं जहाँ सच्ची भक्ति जीवित है। हजारीबाग की धरती साक्षी है उस युग की, जब एक व्यक्ति ने अपने जीवन से यह दिखाया कि आस्था और विज्ञान, पूजा और सेवा, संस्कार और आधुनिकता सब एक साथ चल सकते हैं। अवधेश पाठक ने हमें यह सिखाया कि सच्ची महानता ज्ञान में नहीं, विनम्रता में है; पद में नहीं, सेवा में है और पूजा में नहीं, मानवता में है। आज जब यह संपादकीय शब्दों में उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित कर रहा है, तो यह केवल स्मृति नहीं, एक प्रतिज्ञा भी है कि हम उनके दिखाए मार्ग पर चलेंगे, उनके विचारों को जीवित रखेंगे, और जय माई की उस गूंज को आने वाले समय तक संजोए रखेंगे। उनकी आत्मा को शांति मिले, और उनका आदर्श इस समाज में सदा प्रकाश बनकर चमकता रहे। हजारीबाग ने उन्हें जन्म दिया, पर अब पूरा भारत उन्हें स्मरण करेगा, क्योंकि ऐसे लोग शरीर से भले ही चले जाएँ, पर आत्मा से कभी नहीं मरते।

