संपादकीय-
लोकतंत्र में शब्दों का महत्व तलवार की धार से कम नहीं होता। शब्द समाज को जोड़ भी सकते हैं और तोड़ भी सकते हैं। भारत जैसे बहुजातीय, बहुधर्मी और बहुभाषी देश में राजनीतिक संवाद की मर्यादा केवल संविधानिक दायरे तक सीमित नहीं रहती, बल्कि यह जनता की संवेदनाओं और परंपराओं से भी जुड़ी होती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मां के खिलाफ की गई अभद्र टिप्पणी ने हाल ही में यही सवाल फिर से जीवित कर दिया कि क्या राजनीति के नाम पर व्यक्तिगत गरिमा का अपमान स्वीकार्य है? और यदि नहीं, तो ऐसे वक्तव्यों का लोकतांत्रिक प्रतिरोध किस प्रकार होना चाहिए? बिहार की राजनीति इन दिनों विधानसभा चुनाव की ओर बढ़ रही है। ऐसे समय में बयानबाज़ी और आरोप-प्रत्यारोप तेज होना स्वाभाविक है, लेकिन दरभंगा में जिस तरह से प्रधानमंत्री की मां के लिए आपत्तिजनक भाषा का इस्तेमाल हुआ, उसने पूरे देश का ध्यान खींचा। इस घटना ने न सिर्फ भारतीय जनता पार्टी और उसके सहयोगियों को एकजुट कर दिया बल्कि जनता के एक बड़े तबके में भी आक्रोश पैदा किया। यही कारण रहा कि एनडीए ने 4 सितंबर को सुबह सात बजे से दोपहर बारह बजे तक बिहार बंद का आह्वान किया। यह बंद अपने आप में एक राजनीतिक प्रतिक्रिया था, लेकिन इसके पीछे भावनात्मक आधार भी गहरा था। भारत में मां शब्द केवल रिश्ते की परिभाषा नहीं है, बल्कि यह संस्कृति का प्रतीक है। जब किसी की मां का अपमान किया जाता है, तो वह केवल व्यक्ति विशेष का नहीं, बल्कि उस सामाजिक चेतना का अपमान माना जाता है जिसमें मातृत्व को सर्वोपरि स्थान दिया गया है। नरेंद्र मोदी की मां पर की गई टिप्पणी को जनता ने इसी दृष्टि से देखा। एनडीए की ओर से यह स्पष्ट किया गया कि बंद पूरी तरह शांतिपूर्ण और लोकतांत्रिक तरीके से आयोजित होगा। आपातकालीन सेवाओं को बाधित नहीं किया जाएगा। यह आश्वासन महत्वपूर्ण था क्योंकि भारतीय राजनीति में बंद और हड़ताल अक्सर हिंसा और असुविधा के प्रतीक बन जाते हैं। लेकिन इस बार गठबंधन ने यह संदेश देने की कोशिश की कि वे विरोध तो करेंगे, लेकिन जनता के दैनिक जीवन को बाधित किए बिना। बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष दिलीप जायसवाल ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा कि प्रधानमंत्री की मां को गाली देकर जिस तरह उनका अपमान किया गया, उसने करोड़ों लोगों की भावनाओं को आहत किया है। यह बयान केवल एक नेता की ओर से प्रतिक्रिया नहीं था, बल्कि उस आक्रोश का प्रतीक था जो समाज के विभिन्न वर्गों में देखा जा सकता है। राजनीतिक दृष्टि से देखें तो यह घटना चुनावी समीकरणों को भी प्रभावित कर सकती है। विपक्षी दल जहां महंगाई, बेरोजगारी और स्थानीय मुद्दों को उठाने की रणनीति बना रहे थे, वहीं इस विवाद ने एनडीए को एक नैतिक मुद्दा थमा दिया। अब एनडीए इसे संस्कृति और सम्मान बनाम असम्मान और अपशब्द के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश करेगा। इस तरह का विमर्श चुनावी राजनीति में बेहद असरदार साबित होता है, क्योंकि जनता भावनात्मक मुद्दों पर ज्यादा संवेदनशील होती है। लेकिन यहां यह प्रश्न भी उठता है कि क्या बंद जैसे कदम लोकतांत्रिक संवाद की सर्वोत्तम विधि हैं? लोकतंत्र में विरोध के कई रास्ते हैं जनसभा, धरना, पैदल मार्च, न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाना आदि। बंद से आम जनता को थोड़ी असुविधा होती है, भले ही उसे शांतिपूर्ण बताया जाए। फिर भी, भारत की राजनीतिक संस्कृति में बंद एक स्थापित परंपरा बन चुका है। यह केवल विरोध दर्ज कराने का माध्यम नहीं, बल्कि राजनीतिक शक्ति-प्रदर्शन का भी तरीका है। दरभंगा की घटना ने एक और गंभीर सवाल खड़ा किया है क्या राजनीति अब व्यक्तिगत गरिमा के हनन तक सीमित हो गई है? प्रधानमंत्री किसी भी दल का क्यों न हो, वह राष्ट्र का प्रतिनिधि होता है। उसकी मां, उसके परिवार को राजनीति से बाहर रखा जाना चाहिए। लोकतंत्र की बुनियाद ही इस पर टिकी है कि हम मुद्दों पर असहमति जताएं, लेकिन व्यक्तिगत स्तर पर शालीनता बनाए रखें। दुर्भाग्यवश, यह शालीनता भारतीय राजनीति से धीरे-धीरे गायब होती दिख रही है। इतिहास गवाह है कि जब भी राजनीति में व्यक्तिगत हमले बढ़े हैं, तब जनता ने लंबे समय तक उसे बर्दाश्त नहीं किया। इंदिरा गांधी के दौर में विपक्षी नेताओं ने उन्हें निजी स्तर पर अपमानित करने की कोशिश की, लेकिन जनता ने 1971 और 1980 के चुनावों में उन्हें प्रचंड बहुमत दिया। अटल बिहारी वाजपेयी की गरिमा का विरोधी भी सम्मान करते थे, और यही कारण था कि वे अटल कहलाए। लेकिन आज की राजनीति में यह परंपरा लगभग लुप्त हो चुकी है। बिहार बंद का असर केवल सड़क पर उतरने वाले लोगों तक सीमित नहीं रहेगा। यह सामाजिक संवाद का हिस्सा बनेगा। गांव-गांव, चौपाल-चौपाल में यह चर्चा होगी कि किसी नेता की मां के खिलाफ गाली क्यों दी गई। इस चर्चा का लाभ निश्चित तौर पर एनडीए को मिलेगा, लेकिन यह विपक्ष के लिए चेतावनी भी है कि व्यक्तिगत टिप्पणियाँ उल्टा असर कर सकती हैं।

( पत्रकार )
सामाजिक दृष्टि से भी यह घटना कई संदेश देती है। सबसे पहला संदेश यह है कि जनता केवल मुद्दों पर नहीं, बल्कि भावनाओं पर भी प्रतिक्रिया देती है। दूसरा, यह कि राजनीति में भाषा का स्तर गिरने पर समाज का बड़ा वर्ग आहत होता है। तीसरा, यह कि लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की भी एक सीमा है। इस पूरी घटना ने हमें यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि क्या भारतीय लोकतंत्र में अब संवाद की संस्कृति कमजोर पड़ रही है? क्या हम अपने विरोधियों को पराजित करने के लिए गरिमा को तिलांजलि देने लगे हैं? यदि ऐसा है, तो यह लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है। लोकतंत्र केवल बहुमत से नहीं चलता, वह शालीनता, परंपरा और आपसी सम्मान पर भी टिका होता है। बिहार बंद केवल एक विरोध का प्रतीक नहीं है, यह भारतीय राजनीति की उस यात्रा का हिस्सा है जिसमें नैतिकता और संवेदनशीलता को फिर से परिभाषित करने की कोशिश हो रही है। यह घटना हमें याद दिलाती है कि राजनीति में विचारों का संघर्ष तो अनिवार्य है, लेकिन उसमें व्यक्तिगत अपमान की कोई जगह नहीं होनी चाहिए।