संपादकीय-
भारतीय राजनीति में चुनावों से पहले हमेशा कुछ ऐसे मुद्दे उभरते हैं जो न केवल जनता की भावनाओं को आंदोलित करते हैं, बल्कि सत्ता और विपक्ष की रणनीतियों को भी नई दिशा देते हैं। हाल के वर्षों में एक ऐसा ही मुद्दा बार-बार राष्ट्रीय विमर्श में केंद्र बना है जनसांख्यिकी या डेमोग्राफी का प्रश्न। यह प्रश्न केवल जनसंख्या वृद्धि तक सीमित नहीं है, बल्कि इसके भीतर धर्म, जाति, क्षेत्रीयता और राजनीतिक प्रतिनिधित्व जैसी परतें छिपी हैं। भारतीय जनता पार्टी ने इसे राष्ट्रीय मंच से उठाकर अपनी राजनीति का अहम औजार बना लिया है। भारत की डेमोग्राफी ऐतिहासिक रूप से विविधताओं से भरी रही है। यहां अनेक धर्म, जातियां, भाषाएं और संस्कृतियां साथ-साथ रहती हैं। यह विविधता जहां भारत की शक्ति है, वहीं राजनीतिक दलों के लिए संवेदनशील ज़मीन भी। स्वतंत्रता के बाद से ही यह स्वीकार किया गया कि जनसंख्या संतुलन और प्रतिनिधित्व लोकतंत्र की बुनियाद को प्रभावित करते हैं। लेकिन पिछले तीन दशकों में इस बहस को एक नई गंभीरता मिली है। भाजपा, जिसने हिंदुत्व को अपने वैचारिक केंद्र में रखा है, जनसंख्या प्रश्न को केवल संसाधनों के दबाव से जोड़कर नहीं देखती, बल्कि इसे सांस्कृतिक और राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा बताती है। भाजपा का तर्क है कि कुछ आबादियों में जन्मदर अपेक्षाकृत अधिक है, जिससे भविष्य में जनसांख्यिकीय संतुलन बदल सकता है। यह बदलाव सांस्कृतिक संरचना से लेकर राजनीतिक प्रतिनिधित्व तक पर असर डालेगा। इस तर्क के सहारे अक्सर मुस्लिम और ईसाई समुदाय की जनसंख्या वृद्धि दर को सामने लाया जाता है। हालांकि जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि सभी धर्मों की प्रजनन दर में कमी आई है, फिर भी भाजपा इस विमर्श को सांस्कृतिक सुरक्षा और राष्ट्रीय पहचान से जोड़ देती है। यही कारण है कि चुनावी मंचों पर यह मुद्दा बहुसंख्यक समाज की भावनाओं को जगाने का साधन बन जाता है। उत्तर प्रदेश, बिहार और असम जैसे राज्यों में यह विमर्श बार-बार गढ़ा गया है। असम में अवैध प्रवास और मुस्लिम जनसंख्या वृद्धि का प्रश्न भाजपा की राजनीति का स्थायी हिस्सा रहा है। उत्तर प्रदेश में भी यह विमर्श समय-समय पर उठता रहा है। भाजपा इसे केवल घरेलू संदर्भ में नहीं रखती, बल्कि अंतरराष्ट्रीय उदाहरणों का सहारा लेकर तर्क देती है कि यूरोप जैसे देश भी इस चुनौती से जूझ रहे हैं, इसलिए भारत को सजग होना चाहिए। आलोचकों का कहना है कि भाजपा डेमोग्राफी को भय का रूप देकर बहुसंख्यक समाज को असुरक्षा का संदेश देती है। यह चुनावी ध्रुवीकरण की रणनीति है। उनका मानना है कि यदि सचमुच जनसंख्या नियंत्रण की चिंता है तो इसे किसी एक समुदाय से जोड़कर नहीं, बल्कि शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार नीतियों के जरिये पूरे समाज में लागू किया जाना चाहिए। भाजपा का विमर्श केवल प्रजनन दर तक सीमित नहीं है, बल्कि प्रवास को भी इसमें शामिल करता है। बांग्लादेश से अवैध प्रवास का प्रश्न लंबे समय से उसकी राजनीति का केंद्र रहा है। असम आंदोलन से लेकर नागरिकता संशोधन कानून तक यही विमर्श चलता रहा। भाजपा इसे डेमोग्राफी की रक्षा का कदम बताती है।इस बहस का एक और पहलू है राजनीतिक प्रतिनिधित्व। भारतीय संविधान के अनुसार लोकसभा और विधानसभा की सीटें जनसंख्या के आधार पर तय होती हैं। 1976 में यह सीमा स्थगित की गई और 2026 तक सीटों के पुनर्निर्धारण पर रोक रही। दक्षिण भारत ने परिवार नियोजन अपनाया और वहां जनसंख्या वृद्धि दर कम रही, जबकि उत्तरी राज्यों में यह दर अधिक रही। 2026 के बाद यदि पुनर्निर्धारण होता है तो हिंदी पट्टी की सीटें बढ़ेंगी और दक्षिण भारत का प्रतिनिधित्व घटेगा। भाजपा का यह विमर्श यहीं आकर सत्ता समीकरण से गहराई से जुड़ता है, क्योंकि हिंदी पट्टी भाजपा का गढ़ है और भविष्य में उसे इसका सीधा लाभ मिलेगा। फिर भी यह कहना अनुचित होगा कि जनसंख्या का प्रश्न केवल राजनीतिक महत्वाकांक्षा का औजार है। भारत जैसे विशाल देश में जनसंख्या नियंत्रण सचमुच चुनौती है। गरीब तबकों में शिक्षा और स्वास्थ्य के अभाव में जन्मदर अब भी ऊंची है, जिससे संसाधनों पर दबाव और बेरोजगारी की समस्या बढ़ती है। जब भाजपा राष्ट्रीय मंच से यह मुद्दा उठाती है तो एक हद तक वह वास्तविक चिंता को सामने लाती है। समस्या तब होती है जब यह चिंता धार्मिक विमर्श में बदलकर सामाजिक तनाव को बढ़ा देती है।लोकतंत्र में राजनीतिक दल जनता की भावनाओं को स्वर देते हैं।

भाजपा ने डेमोग्राफी का प्रश्न उठाकर दिखाया है कि वह बहुसंख्यक समाज की भावनाओं को साधने में कुशल है। लेकिन लोकतंत्र का असली मूल्य तभी है जब राजनीति केवल भावनाओं को भड़काने के बजाय ठोस समाधान भी प्रस्तुत करे। शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार की नीतियों के बिना जनसंख्या नियंत्रण संभव नहीं। यही वह बिंदु है जिस पर भाजपा की रणनीति सवालों के घेरे में आती है। इस विमर्श को केवल भाजपा तक सीमित कर देखना भी गलत होगा। कांग्रेस ने भी अतीत में परिवार नियोजन पर जोर दिया था, लेकिन आपातकाल में जबरन नसबंदी की नीति ने इस मुद्दे को कलंकित कर दिया। समाजवादी दलों ने इसे गरीबों पर थोपे गए बोझ के रूप में देखा। भाजपा ने इसे नया राजनीतिक परिधान पहनाकर सामने रखा है। अंततः भारतीय राजनीति में संख्या का खेल निर्णायक होता है। चाहे वह संसद की सीटों का निर्धारण हो या चुनाव में वोटों की गिनती, संख्या ही सत्ता तय करती है। भाजपा यह भलीभांति समझती है और इसलिए डेमोग्राफी को अपनी रणनीति के केंद्र में रखती है। लेकिन प्रश्न यही है कि क्या यह विमर्श वास्तविक समाधान तक ले जाएगा या केवल सत्ता समीकरण साधने का एक और हथियार बनेगा।