स्वास्थ्य-
डिजिटल युग ने हमारे जीवन की गति, शैली और रोज़मर्रा की आदतों को पूरी तरह बदल दिया है। स्मार्टफोन, टैबलेट और लैपटॉप हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा बन गए हैं। सुबह आंख खोलते ही हम सबसे पहले अपने फोन की स्क्रीन देखते हैं, दिनभर कई बार यह छोटा यंत्र हमारी उंगलियों के सहारे हमारी दुनिया को नियंत्रित करता है। नोटिफिकेशन, संदेश, सोशल मीडिया, वीडियो स्ट्रीमिंग और गेम यह सब हमारी आंखों और मस्तिष्क पर लगातार दबाव डालते रहते हैं। लेकिन क्या हमने कभी सोचा है कि इसी डिजिटल सुविधा के पीछे हमारी स्वास्थ्य संबंधी चेतावनी छिपी हुई है? स्क्रीन टाइम, यानी दिन में फोन पर बिताया गया समय, अब केवल समय की गिनती नहीं रह गई है। यह हमारे स्वास्थ्य, मानसिक स्थिति और सामाजिक जीवन का दर्पण बन चुका है। लंबे समय तक स्क्रीन पर नजर टिकाए रखने से सबसे पहले हमारी आंखें प्रभावित होती हैं। आंखों में जलन, धुंधला दिखाई देना, बार-बार झपकने की आदत, और लगातार देखने पर दर्द ये संकेत आज सामान्य से अधिक दिखाई दे रहे हैं। बच्चों और युवाओं में यह समस्या विशेष रूप से गंभीर है। स्क्रीन की नीली रोशनी रेटिना और दृष्टि तंत्रिका पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है, जिससे दृष्टि की कमजोरी और आंखों की थकान की संभावना बढ़ जाती है। नींद पर इसका प्रभाव और भी गहरा है। नीली रोशनी हमारे मस्तिष्क के उस हार्मोन, मेलाटोनिन, को प्रभावित करती है जो नींद के प्राकृतिक चक्र को नियंत्रित करता है। देर रातस तक फोन पर व्यस्त रहने वाले व्यक्ति की नींद कम और असंगठित होती है। नींद की कमी सीधे मानसिक स्वास्थ्य और प्रतिरक्षा प्रणाली पर असर डालती है। कई अध्ययनों में यह स्पष्ट हुआ है कि लगातार स्क्रीन टाइम से तनाव, चिंता और अवसाद जैसी मानसिक समस्याओं की संभावना बढ़ जाती है। सिर्फ मानसिक और नींद संबंधी समस्याएं ही नहीं, बल्कि शारीरिक स्वास्थ्य पर भी इसका गहरा असर है। लंबे समय तक फोन इस्तेमाल करने से गर्दन और पीठ में दर्द, मांसपेशियों में खिंचाव और गलत मुद्रा जैसी समस्याएं बढ़ती हैं। बच्चों और युवाओं में यह समस्या अधिक गंभीर है, क्योंकि उनका शारीरिक विकास जारी रहता है। अत्यधिक स्क्रीन टाइम से हड्डियों और मांसपेशियों का संतुलन बिगड़ सकता है, और यह लंबे समय में स्थायी स्वास्थ्य समस्याओं का कारण बन सकता है।इसके सामाजिक और व्यवहारिक प्रभाव भी उतने ही गंभीर हैं। डिजिटल दुनिया की ओर अत्यधिक झुकाव के कारण लोग वास्तविक जीवन के संबंधों से कटने लगते हैं। दोस्त और परिवार के साथ संवाद कम हो जाता है, जबकि सोशल मीडिया पर सक्रियता बढ़ जाती है। इसका परिणाम यह होता है कि मानसिक संतुलन बिगड़ता है, आत्मसम्मान प्रभावित होता है और सामाजिक कौशल कमजोर पड़ते हैं। बच्चों और किशोरों में यह व्यवहारिक बदलाव और भी स्पष्ट दिखाई देता है।

अधिवक्ता, झारखण्ड उच्च न्यायालय रांची
विशेषज्ञों के अनुसार बच्चों और किशोरों के लिए प्रतिदिन स्क्रीन टाइम की सीमा तय करना अत्यंत आवश्यक है। विश्व स्वास्थ्य संगठन और अन्य स्वास्थ्य संस्थाओं का सुझाव है कि 5 से 17 वर्ष के बच्चों के लिए दिन में दो घंटे से अधिक स्क्रीन टाइम स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सकता है। वयस्कों के लिए भी लगातार स्क्रीन पर काम करने के दौरान समय-समय पर ब्रेक लेना, आंखों की कसरत करना और शारीरिक गतिविधियों में शामिल होना जरूरी है। समाधान केवल तकनीकी नहीं हैं। यह जीवनशैली का सवाल है। परिवार, स्कूल और समाज को मिलकर बच्चों और युवाओं को डिजिटल समय के महत्व और सीमाओं के प्रति जागरूक करना होगा। खेल-कूद और शारीरिक गतिविधियों को बढ़ावा देना, फोन और अन्य डिजिटल उपकरणों के उपयोग में सीमाएं तय करना, और नियमित समय पर स्क्रीन ब्रेक लेना इस दिशा में पहला कदम है। वयस्कों के लिए यह जिम्मेदारी अपनी और अपने परिवार की स्वास्थ्य सुरक्षा की है। तकनीक भी मददगार हो सकती है। आधुनिक स्मार्टफोन में स्क्रीन टाइम मॉनिटरिंग, नोटिफिकेशन लिमिट और नीली रोशनी कम करने वाले फ़िल्टर जैसी सुविधाएं उपलब्ध हैं। रात मोड और आंखों की सुरक्षा सेटिंग्स का इस्तेमाल करके हम डिजिटल उपकरणों का सुरक्षित उपयोग सुनिश्चित कर सकते हैं। इन छोटे-छोटे उपायों से डिजिटल दुनिया का संतुलित उपयोग संभव है। स्क्रीन टाइम के स्वास्थ्य पर प्रभाव को नज़रअंदाज़ करना किसी भी समाज के लिए खतरे की घंटी है। यदि हम समय रहते इस पर ध्यान नहीं देंगे, तो आने वाली पीढ़ियों में दृष्टि, मानसिक स्वास्थ्य और सामाजिक संबंधों से जुड़ी समस्याएं और गहरी हो सकती हैं। यही कारण है कि डिजिटल दुनिया और वास्तविक जीवन के बीच संतुलन बनाए रखना केवल विकल्प नहीं, बल्कि आवश्यकता बन चुका है। हमारे बच्चों की शिक्षा, उनका मानसिक विकास और उनका सामाजिक व्यवहार इस संतुलन पर निर्भर करता है। केवल पढ़ाई या गेमिंग की दुनिया में सीमित रहकर बच्चे वास्तविक जीवन के अनुभव और संवाद से वंचित हो रहे हैं। यह अकेले माता-पिता की जिम्मेदारी नहीं है; स्कूल, शिक्षक और समाज सभी को मिलकर इस चुनौती का समाधान ढूँढना होगा। व्यक्तिगत स्तर पर भी हमें अपनी आदतें बदलनी होंगी। फोन को रात भर पास में रखकर सोना, समय-समय पर नोटिफिकेशन की जांच करना और अनावश्यक ऐप्स का इस्तेमाल करना हमारी आंखों, नींद और मानसिक शांति को नुकसान पहुंचा रहा है। डिजिटल उपकरणों के उपयोग को नियंत्रित करना और ब्रेक लेना आधुनिक जीवन का स्वास्थ्य मंत्र बन गया है।समाज और परिवार में जागरूकता फैलाना भी उतना ही महत्वपूर्ण है। बच्चों और युवाओं को स्क्रीन टाइम के नुकसान समझाने के लिए संवाद, कार्यशालाएं और खेल गतिविधियां आयोजित की जा सकती हैं। माता-पिता को उदाहरण प्रस्तुत करना होगा। जब हम खुद डिजिटल उपकरणों का संतुलित उपयोग करेंगे, तभी हमारे बच्चे भी इसे अपनाएंगे। स्क्रीन टाइम केवल तकनीकी माप नहीं, बल्कि हमारे जीवन, स्वास्थ्य और भविष्य का दर्पण है। इसे नियंत्रित करना न केवल व्यक्तिगत स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है, बल्कि समाज और परिवार के कल्याण के लिए भी अनिवार्य है। आधुनिक जीवन में जागरूकता और समझदारी ही हमें इस डिजिटल जाल में स्वास्थ्य और संतुलन बनाए रखने की दिशा दिखा सकती है। आज ही इस दिशा में पहला कदम उठाना होगा। फोन को हमारी सुविधा बनाएँ, हमारा शत्रु न बनने दें। आंखें, नींद और मानसिक शांति इन सभी की रक्षा अब हमारी जिम्मेदारी बन चुकी है। डिजिटल यथार्थ और वास्तविक जीवन के बीच संतुलन बनाना ही आधुनिक जीवन का सबसे बड़ा स्वास्थ्य मंत्र है।