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झारखंड की सियासत में घाटशिला उपचुनाव ने बढ़ाया सस्पेंस

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झारखंड की सियासत में घाटशिला उपचुनाव ने बढ़ाया सस्पेंस

 

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झामुमो की चुप्पी और भाजपा की मौन रणनीति पर सस्पेंस बरकरार 

 

 

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संपादकीय-

 

झारखंड की राजनीति हमेशा से परंपरा, परिवारवाद और आदिवासी अस्मिता के संघर्षों के बीच झूलती रही है। यहां चुनाव केवल सत्ता के लिए नहीं होते, बल्कि यह पहचान, अस्तित्व और समाज में अपनी जगह बनाए रखने की लड़ाई बन जाते हैं। घाटशिला विधानसभा का उपचुनाव, जो रामदास सोरेन के निधन के बाद खाली हुई सीट पर होना है, अचानक पूरे राज्य की राजनीतिक दिशा का केंद्र बन गया है। यह चुनाव केवल एक सीट का सवाल नहीं है, बल्कि यह झामुमो और बीजेपी दोनों के लिए प्रतिष्ठा, रणनीति और भविष्य की राजनीति का इम्तिहान है। रामदास सोरेन का जाना झारखंड की राजनीति में केवल व्यक्तिगत क्षति नहीं था। वे मंत्री पद पर रहते हुए अपने क्षेत्र और पार्टी दोनों के लिए पुल का काम करते थे। उनके निधन ने घाटशिला क्षेत्र में एक खालीपन पैदा किया, जो केवल उम्मीदवार चुनने की चुनौती नहीं बल्कि भावनाओं, सहानुभूति और राजनीतिक प्रतीकों की लड़ाई भी बन गया। स्वाभाविक है कि उनके परिवार को ही सबसे पहले प्राथमिकता दी जाती है।

 

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हंसराज चौरसिया ( पत्रकार )
हंसराज चौरसिया
( पत्रकार )

 


सोमेश सोरेन, उनके पुत्र, सबसे प्रमुख दावेदार माने जा रहे हैं। लेकिन झामुमो ने अभी तक अपने पत्ते नहीं खोले। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की चुप्पी इस सस्पेंस को और गहरा करती है। बीजेपी भी किसी से कम नहीं है। घाटशिला के लिए उनका मनोबल और रणनीति दोनों चुनौतीपूर्ण हैं। कभी 2000 के चुनाव में आदिवासी समाज में आधी सीटों पर कब्ज़ा रखने वाली पार्टी, आज केवल एक सीट के साथ खड़ी है। यह उनके लिए केवल हार का संकेत नहीं था, बल्कि आदिवासी समाज में उनका खोता हुआ जनाधार दिखाता था। 2024 के चुनाव में इंडिया गठबंधन ने झारखंड की आदिवासी सीटों पर ऐतिहासिक जीत हासिल की। झामुमो ने 20 और कांग्रेस ने 7 सीटें जीतकर बीजेपी के सारे समीकरण ध्वस्त कर दिए। घाटशिला अब उनके लिए खोई हुई पहचान को वापस पाने का अवसर है, लेकिन यह आसान नहीं होगा। बीजेपी के लिए घाटशिला चुनाव केवल चुनाव नहीं है यह आदिवासी समाज में अपने खोए हुए संबंध को पुनः स्थापित करने की कोशिश है। उनके पास बाबूलाल सोरेन हैं, पूर्व मुख्यमंत्री चंपाई सोरेन के बेटे, जिन्होंने 2024 में चुनाव हारा था। इसके अलावा लखन मार्डी और रमेश हांसदा जैसे दिग्गज भी दावेदार हैं। लेकिन सबसे दिलचस्प नाम है जयश्री, शिबू सोरेन की पोती, जो बीजेपी में आई हैं।

 

अगर बीजेपी उन्हें उम्मीदवार बनाती है तो यह झामुमो के लिए सबसे बड़ी चुनौती होगी। ऐसी स्थिति में झामुमो रामदास सोरेन की पत्नी को उम्मीदवार बनाने की सोच सकती है, ताकि सहानुभूति और महिला कार्ड दोनों खेल सकें।झारखंड की राजनीति में सहानुभूति और परिवारवाद का प्रयोग बार-बार देखा गया है। जब भी किसी मंत्री का निधन हुआ, पार्टी ने उनके परिवार को आगे बढ़ाकर चुनावी लाभ उठाया। हाजी हुसैन अंसारी के निधन के बाद उनके बेटे हफिजुल हसन को उपचुनाव से पहले मंत्री बनाया गया और उन्होंने जीत हासिल की। डुमरी में जगरनाथ महतो के निधन के बाद उनकी पत्नी बेबी देवी को मंत्री बनाकर मैदान में उतारा गया, और वे उपचुनाव जीत गईं। हालांकि बाद में 2024 में हार गईं, लेकिन उपचुनाव में सहानुभूति का जादू स्पष्ट था। इसी परंपरा के तहत अब घाटशिला में भी सहानुभूति और परिवारवाद की राजनीति चल रही है, लेकिन अभी तक मंत्री वाला कार्ड नहीं खेला गया। रामदास सोरेन की विरासत और उनका परिवार झारखंड की आदिवासी राजनीति में एक विशेष स्थान रखते हैं। उनके नेतृत्‍व में झामुमो ने आदिवासी समाज में गहरी पैठ बनाई। उनके निधन के बाद उनके पुत्र सोमेश सोरेन को मैदान में उतारने का मतलब केवल राजनीतिक रणनीति नहीं, बल्कि जनता की भावनाओं का सम्मान भी है।

 

दूसरी ओर बीजेपी आदिवासी समाज में अपना खोया हुआ जनाधार वापस पाने के लिए रणनीति बनाने में लगी है। घाटशिला की सीट केवल एक चुनाव क्षेत्र नहीं है। यह झारखंड की आदिवासी राजनीति का प्रतीक है। इस सीट पर झामुमो की जीत केवल संगठन की ताकत और सहानुभूति की राजनीति का प्रमाण होगी। वहीं अगर बीजेपी जीतती है, तो यह आदिवासी समाज में उनकी वापसी का संकेत होगा। दोनों दल बेहद सावधानी से खेल रहे हैं, क्योंकि यह केवल सीट का सवाल नहीं, बल्कि राज्य की भविष्य की राजनीति का संकेत है। इतिहास बताता है कि झारखंड की आदिवासी राजनीति में परिवारवाद और सहानुभूति का बहुत महत्व रहा है। नेता के निधन के बाद परिवार का उम्मीदवार बनाना एक परंपरा बन चुकी है। यह केवल झारखंड में ही नहीं, बल्कि पूरे देश में देखा गया है। जनता अक्सर सहानुभूति और भावनात्मक जुड़ाव के कारण परिवार को चुनती है। घाटशिला उपचुनाव इसका अगला उदाहरण बनने जा रहा है। बीजेपी के लिए चुनौती यह है कि वे केवल चुनाव जीतने पर ध्यान नहीं दे सकते। उन्हें आदिवासी समाज में अपनी खोई हुई पैठ फिर से बनानी होगी। यह वही समाज है जिसने पहले उन्हें आधी सीटें दी थीं, अब वे केवल एक सीट पर सीमित हैं। घाटशिला चुनाव उनके लिए परीक्षण है कि क्या वे सहानुभूति और परिवारवाद के इस खेल में अपना दांव चला सकते हैं और जनता का विश्वास वापस पा सकते हैं। झामुमो की चुनौती भी कम नहीं है। उन्हें अपने नेता की विरासत को बनाए रखना है और बीजेपी की वापसी की कोशिश को रोकना है। सहानुभूति की राजनीति और संगठन की ताकत दोनों का संतुलन बनाए रखना उनकी सफलता की कुंजी होगी। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की चुप्पी इसी रणनीति का हिस्सा है। वे जानते हैं कि जल्दबाजी में फैसला करना उनके लिए नुकसानदेह हो सकता है। इस चुनाव में आदिवासी समाज की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। घाटशिला की जनता केवल राजनीतिक उम्मीदवार को नहीं चुन रही, बल्कि वे एक प्रतीक को चुन रहे हैं—रामदास सोरेन की विरासत, उनके परिवार की आवाज़ और उनके संघर्ष का सम्मान।

 

यही कारण है कि सहानुभूति का कार्ड बार-बार खेला जाता है। जनता की भावनाओं को समझकर ही चुनाव का परिणाम तय होगा। आने वाले समय में घाटशिला उपचुनाव का प्रभाव केवल इस सीट तक सीमित नहीं रहेगा। यह चुनाव झारखंड में आगामी विधानसभा चुनाव की दिशा तय करेगा। अगर झामुमो जीतती है, तो यह आदिवासी राजनीति में उनके प्रभुत्व को और मजबूत करेगा। अगर बीजेपी जीतती है, तो यह उनके लिए खोए हुए जनाधार की वापसी और भविष्य की रणनीति का पहला कदम होगा। दोनों दलों की चुप्पी और इंतजार इस सस्पेंस को और गहरा बनाता है। सच्चाई यह है कि घाटशिला उपचुनाव केवल राजनीति का खेल नहीं है। यह जनता, परिवार, परंपरा, सहानुभूति और शक्ति के कई पहलुओं का मिलाजुला संघर्ष है। यहां केवल जीत या हार नहीं, बल्कि आदिवासी राजनीति के भावी स्वरूप, दलों की रणनीति और जनता की प्राथमिकताओं का निर्णय होगा। इस उपचुनाव की कहानी केवल उम्मीदवारों और पार्टियों तक सीमित नहीं है। यह झारखंड की राजनीति की कहानी है, जहां परिवार, सहानुभूति और आदिवासी अस्मिता की राजनीति सत्ता और पहचान दोनों के लिए निर्णायक भूमिका निभाती है। रामदास सोरेन के निधन ने इस कहानी को एक नया मोड़ दिया है, और अब सवाल यह है कि कौन इसे अपने पक्ष में मोड़ेगा। क्या यह झामुमो का संगठन और सहानुभूति होगा या बीजेपी की रणनीति और आदिवासी कार्ड काम आएगा।

 

घाटशिला उपचुनाव केवल एक विधानसभा सीट की लड़ाई नहीं, बल्कि झारखंड की राजनीति के भविष्य का संकेतक बन चुका है। यह दिखाएगा कि सहानुभूति, परिवारवाद और संगठन की राजनीति कितनी मजबूत है और जनता किन मूल्यों को प्राथमिकता देती है। इतिहास ने बार-बार यह सिखाया है कि झारखंड की जनता अपने नेताओं के परिवार और उनके संघर्ष को कभी नहीं भूलती। यही कारण है कि यह चुनाव दिलचस्प, भावनात्मक और रणनीतिक सभी मायनों में महत्वपूर्ण है। आज घाटशिला की जनता, उम्मीदवार और पार्टियां सभी यही देख रही हैं कि भविष्य के झारखंड की राजनीति किस दिशा में जाएगी।

 

कौन अपनी पकड़ मजबूत करेगा, कौन खोई हुई जमीन को वापस पाएगा और कौन सहानुभूति की ताकत को जीत में बदल पाएगा।

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राज्य प्रमुख
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हंसराज चौरसिया स्वतंत्र स्तंभकार और पत्रकार हैं, जो 2017 से सक्रिय रूप से पत्रकारिता में कार्यरत हैं। उन्होंने अपनी शुरुआत स्वतंत्र प्रभात से की और वर्तमान में झारखंड दर्शन, खबर मन्त्र, स्वतंत्र प्रभात, अमर भास्कर, झारखंड न्यूज़24 और क्राफ्ट समाचार में स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। साथ ही झारखंड न्यूज़24 में राज्य प्रमुख की जिम्मेदारी भी निभा रहे हैं। रांची विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में स्नातकोत्तर (2024–26) कर रहे हंसराज का मानना है कि पत्रकारिता केवल पेशा नहीं, बल्कि समाज की आवाज़ को व्यवस्था तक पहुंचाने का सार्वजनिक दायित्व है। उन्होंने राजनीतिक संवाद और मीडिया प्रचार में भी अनुभव हासिल किया है। हजारीबाग ज़िले के बरगड्डा गाँव से आने वाले हंसराज वर्तमान में रांची में रहते हैं और लगातार सामाजिक न्याय, लोकतांत्रिक विमर्श और जन मुद्दों पर लिख रहे हैं।
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