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पंजाब की धरती ने दिखाया, सेवा ही सबसे बड़ा धर्म है

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सेवा ही सबसे बड़ा धर्म है
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संपादकीय-

रसात का मौसम जब आता है, तो धरती हरियाली से भर जाती है। किसान अपनी आँखों में नई उम्मीदों के बीज बोते हैं। खेतों में उगती फसलें मानो गीत गाती हैं, और बच्चों की हँसी गाँव की गलियों में गूँजती है। परंतु जब वही बरसात अपने संतुलन से बाहर निकल जाती है, जब आसमान से उतरती बूंदें थमने का नाम नहीं लेतीं और नदियाँ अपने किनारों से बाहर बहने लगती हैं, तब वह जीवन का उत्सव अचानक शोकगीत में बदल जाता है। यही दृश्य हाल ही में पंजाब की धरती ने देखा। वहाँ जहाँ कभी खेतों में लहराती फसलें जीवन का गर्व थीं, वे खेत पानी के अथाह सागर में डूब गए। वहाँ जहाँ कभी चौपालों में शाम ढलते ही रौनक बिखर जाती थी, वहाँ अब पानी की धाराओं में बहते मलबे और टूटती दीवारों की करुण गूँज रह गई। लोग अपने घरों की छतों पर चढ़कर आसमान की ओर देखते रहे, मानो वहाँ से कोई मदद उतरेगी। बच्चे अपनी माँओं की गोद में सिमटे रहे, बुजुर्ग अपने अनुभवों के बावजूद असहाय नज़र आए। पशुओं की आँखों में भी वही भय तैर रहा था। बिजली के खंभे टूट गए, सड़कों पर दरारें पड़ गईं, स्कूल बंद हो गए और बाजार वीरान हो गए। यह केवल एक प्राकृतिक आपदा नहीं थी, यह मानव जीवन की असुरक्षा का नग्न प्रमाण थी।परंतु, ऐसे ही क्षणों में यह धरती अपने भीतर छिपे अद्भुत मूल्य को सामने लाती है। जब हर ओर अंधकार छाया हो, तब यदि कोई दीप जलता है, तो उसका प्रकाश केवल भूख से कराहते पेटों को ही नहीं, बल्कि निराश आत्माओं को भी रोशन कर देता है। पंजाब में यह दीप जला लंगर के रूप में। लंगर कोई साधारण रसोई नहीं, यह पंजाब की आत्मा है। यह वह परंपरा है जो गुरु नानक से चली आ रही है और जिसने सदियों से यह सिखाया है कि भूख मिटाना सबसे बड़ा धर्म है, सेवा करना सबसे पवित्र साधना है। जब बाढ़ आई, तो हर ओर से यही आवाज उठी लंगर चलाना है। गाँव-गाँव से लोग आगे आए। किसी ने अपने घर से आटा निकालकर दिया, किसी ने दालें भेजीं, किसी ने दूध बाँटा और किसी ने अपनी मेहनत का समय दिया। जिन लोगों ने अपने घर खो दिए थे, वे भी दूसरों के लिए रोटियाँ बेलने लगे। नौजवान नावों पर आटा, चावल और सब्ज़ियाँ लेकर बाढ़ग्रस्त इलाकों की ओर दौड़ पड़े। बच्चे थालियाँ सजाने लगे और बुजुर्ग आशीर्वाद देने लगे। यह दृश्य मानो आपदा का नहीं, बल्कि करुणा के महोत्सव का था। लंगर के बड़े-बड़े बर्तनों में जब दाल पकती थी और रोटियों की महक चारों ओर फैलती थी, तो भूख से जूझते लोगों की आँखों में चमक लौट आती थी। एक थाली में रोटी, दाल और थोड़ा-सा अचार पाकर लोग केवल पेट ही नहीं भरते थे, बल्कि आत्मा में भी तृप्ति महसूस करते थे। यह भोजन केवल शरीर के लिए नहीं था, यह जीवन के प्रति विश्वास जगाने वाला आशीर्वाद था। एक बूढ़ी महिला ने आँसुओं के बीच कहा, मेरा घर पानी में डूब गया, पर यह रोटी मुझे जीने का सहारा दे रही है। एक बच्चा, जिसने पूरे दिन कुछ नहीं खाया था, जब उसने लंगर से पहली बार कौर लिया, तो उसकी मुस्कान ने मानो यह कह दिया कि जीवन फिर से लौट सकता है। यह दृश्य केवल एक राज्य का नहीं था, बल्कि पूरे मानव समाज के लिए सीख थी कि विपत्ति के समय सेवा ही सबसे बड़ा धर्म है।पंजाब की मिट्टी में यह संस्कृति यूँ ही नहीं पनपी। यह वही भूमि है जिसने गुरुओं की वाणी सुनी, शहीदों का बलिदान देखा और किसानों के श्रम को अन्न में बदलते देखा। यहाँ के लोग जानते हैं कि दुख किसी एक का नहीं होता, बल्कि पूरे समाज का होता है। इसीलिए जब किसी गाँव में बाढ़ आई, तो दूसरे गाँव से लोग राशन लेकर पहुँचे। जब किसी ने अपनी छत खोई, तो दूसरे ने उसे आश्रय दिया। कोई पूछता नहीं था कि तुम कौन हो, किस जाति या धर्म के हो। यहाँ केवल एक ही पहचान थी तुम इंसान हो और भूखे हो। यही लंगर का सार था। यह भी उल्लेखनीय है कि लंगर केवल मनुष्यों तक सीमित नहीं रहा। मवेशियों के लिए भी चारे की गाड़ियाँ भेजी गईं। यह संवेदना दिखाती है कि पंजाब का समाज हर जीव को अपना मानता है। सेवा का यह भाव किसी किताब का उपदेश नहीं, बल्कि जीवंत परंपरा है जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही है। जब प्रशासन अपनी सीमाओं में उलझा हुआ था, तब समाज ने अपने बलबूते पर राहत कार्य को गति दी। कलाकारों और गायकों ने दान दिया, प्रवासी पंजाबी भाइयों ने विदेशों से सहायता भेजी, गुरुद्वारे चौबीसों घंटे खुले रहे और स्कूलों को राहत शिविर बना दिया गया। यह एकजुटता किसी सरकारी आदेश से नहीं, बल्कि दिलों से उपजी थी।

    हंसराज चौरसिया ( पत्रकार )हंसराज चौरसिया
    ( पत्रकार )

लेकिन यह प्रश्न भी उठता है कि क्या केवल सेवा और लंगर से सब समस्याएँ हल हो जाएँगी? निश्चित ही नहीं। यह बाढ़ हमें यह चेतावनी देती है कि प्रकृति के साथ खिलवाड़ का परिणाम कितना भयावह हो सकता है। नदियों के किनारे अतिक्रमण, जल निकासी की उपेक्षा और अनियोजित विकास ने इस आपदा को और गंभीर बना दिया। यदि समय रहते सावधानी न बरती गई, तो भविष्य में और भी भयानक संकट आ सकते हैं। फिर भी, समाधान की राह निराशा में नहीं, बल्कि इसी सामूहिकता में छिपी है। यदि सरकार, समाज और नागरिक मिलकर कार्य करें, तो आपदा को रोका भी जा सकता है और उसका सामना भी अधिक सशक्त रूप से किया जा सकता है। पंजाब के लोगों ने यह दिखा दिया है कि सहयोग की भावना सबसे बड़ा अस्त्र है। बाढ़ ने बहुत कुछ छीना, लेकिन उसने एक अमिट छाप भी छोड़ी कि संकट चाहे कितना भी गहरा क्यों न हो, यदि दिलों में करुणा और हाथों में सेवा का संकल्प है, तो मानवता अडिग रहती है। लंगर केवल भोजन नहीं था, वह आशा था, विश्वास था और जीवन के पुनर्निर्माण का संकल्प भी था। आज जब हम पीछे मुड़कर इस बाढ़ की त्रासदी को देखते हैं, तो हमें घरों के मलबे, डूबे खेतों और रोते चेहरों की तस्वीरें दिखती हैं। लेकिन उन्हीं के बीच हमें रोटियाँ बेलते हाथ, नाव में थालियाँ लेकर जाते युवक और लंगर की कतार में बैठकर एक साथ भोजन करते लोग भी दिखते हैं। यही दृश्य हमें यह भरोसा दिलाते हैं कि इंसानियत के दीप कभी नहीं बुझते। पंजाब की बाढ़ ने यह सिखाया कि जीवन अस्थिर है, परंतु सेवा स्थिर है। खेत उजड़ सकते हैं, पर करुणा कभी उजड़ती नहीं। दीवारें गिर सकती हैं, पर मानवता की दीवार अडिग रहती है। जब तक लंगर की थालियाँ सजती रहेंगी, जब तक लोग मिलकर दूसरों की भूख मिटाते रहेंगे, तब तक कोई भी आपदा हमें तोड़ नहीं सकती।

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राज्य प्रमुख
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हंसराज चौरसिया स्वतंत्र स्तंभकार और पत्रकार हैं, जो 2017 से सक्रिय रूप से पत्रकारिता में कार्यरत हैं। उन्होंने अपनी शुरुआत स्वतंत्र प्रभात से की और वर्तमान में झारखंड दर्शन, खबर मन्त्र, स्वतंत्र प्रभात, अमर भास्कर, झारखंड न्यूज़24 और क्राफ्ट समाचार में स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। साथ ही झारखंड न्यूज़24 में राज्य प्रमुख की जिम्मेदारी भी निभा रहे हैं। रांची विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में स्नातकोत्तर (2024–26) कर रहे हंसराज का मानना है कि पत्रकारिता केवल पेशा नहीं, बल्कि समाज की आवाज़ को व्यवस्था तक पहुंचाने का सार्वजनिक दायित्व है। उन्होंने राजनीतिक संवाद और मीडिया प्रचार में भी अनुभव हासिल किया है। हजारीबाग ज़िले के बरगड्डा गाँव से आने वाले हंसराज वर्तमान में रांची में रहते हैं और लगातार सामाजिक न्याय, लोकतांत्रिक विमर्श और जन मुद्दों पर लिख रहे हैं।
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